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जाणइ य जह मरिज्जइ, अमरंतं पि हु जरा विणासेइ ।
न य उव्विग्गो लोगो, अहो ! रहस्सं सुनिम्मायं ॥२०५॥ ___ शब्दार्थ : यह जीव जानता है कि सभी जीव को अपनी
अपनी आयु समाप्त होते ही अवश्य मरना है और फिर वृद्धावस्था नहीं मरे हुए जीव को भी मार डालती है। फिर भी लोग जन्म-मरण के भ्रमण से उद्विग्न (भयभीत) नहीं होते, उन्हें संसार से विरक्ति होती ही नहीं । 'महान् आश्चर्य है कि मोह का कितना गूढ रहस्यमय चरित्र है कि जीव को वह मिथ्याभ्रम में डालकर पाप में लिप्त कर देता है ॥२०५॥ दुप्पयं चउप्पयं बहुपयं, च अपयं समिद्ध-महणं वा । अणवकएऽवि कयंतो, हरइ हयासो अपरितंतो ॥२०६॥
शब्दार्थ : मनुष्य आदि दो पैरों वाले, गाय, भैंस आदि चार पैरों वाले, भौंरा आदि बहुत पैर वाले, सर्प आदि पैर रहित तथा धनवान, निर्धन अथवा पंडित और मूर्ख आदि सभी को बिना ही किसी अपराध के मृत्यु बिना थके या हताश हुए मार डालती है । मृत्यु किसी को नहीं छोड़ती ॥२०६॥ न य नज्जइ सो दियहो, मरियव्वं चाऽवसेण सव्वेण । आसापासपरद्धो, न करेइ य जं हियं वज्झो ॥२०७॥
शब्दार्थ : किस दिन मरना है, इसे यह जीव नहीं जानता; परंतु सभी को एक न एक दिन अवश्य मरना है, इस बात को जानता है । फिर भी आशा रूपी पाश में उपदेशमाला