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परवश हुआ और मौत के मुख में रहा हुआ यह जीव, जो हितकारक धर्मानुष्ठान है, उसे नहीं करता ॥ २०७॥
संज्झरागजलबुब्बूओवमे, जीविए य जलबिंदुचंचले ।
जुव्वणे य नइवेगसन्निभे,
पाव जीव ! किमयं न बुज्झसि ॥ २०८ ॥
शब्दार्थ : यह जीवन संध्या की लालिमा के समान क्षणिक है, जल तरंग पानी के बुलबुले के समान नाशवान है, दर्भ के अग्रभाग पर पड़े हुए जलकण के समान चंचल है । और जवानी नदी के वेग के समान थोड़े-से समय टिकने वाली है । फिर भी पापकर्म में रचा- पचा जीव नहीं समझता और अपना अहित ही करता रहता है ॥२०८॥ जं जं नज्जइ असुइं, लज्जिज्जइ कुच्छणिज्जमेयं ति । तं तं मग्गइ अंगं, नवरि अणंगोत्थ पडिकूलो ॥ २०९ ॥
शब्दार्थ : जिस अंग को अपवित्र समझता है, जिस अंग को देखते ही लज्जा आती है और जिस घिनौने अंग से घृणा करता है; स्त्री के उसी जघनादि अंगों की मूढ़ पुरुष अभिलाषा करता है । कामदेव के वश होकर जीव स्त्री के निन्दनीय अंगों को भी अतिरमणीय मानकर प्रकट रूप से प्रतिकूल आचरण करता है ॥ २०९ ॥
उपदेशमाला
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