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शब्दार्थ : यह पापी जीव विषय-कषायादि प्रमाद के वश होकर सांसारिक कार्यों में सदा उद्यमी रहा; और उनमें उसे विविध प्रकार के संयोग-वियोग अथवा जन्म-मरण के दुःख भी उठाने पड़े; लेकिन उन दुःखों के बावजूद भी उसे उनसे निर्वेद (वैराग्य) नहीं हुआ । और न इन्द्रिय-सुखों को पाकर भी वह संतुष्ट हुआ ॥१९५॥ परितप्पिएण तणुओ, साहारो जइ घणं न उज्जमइ । सेणियराया तं तह, परितप्पंतो गओ नरयं ॥१९६॥
शब्दार्थ : यदि स्वतंत्र रूप से तप-संयम आदि की आराधना में विशेष रूप से उद्यम न किया जाता है तो बाद में उसे पाप कर्म की निंदा गर्दा और पश्चात्ताप आदि से विशेष लाभ नहीं होता । वह लघुकर्मों का क्षय जरूर कर सकता है, परंतु महाकर्मों का नहीं । जैसे श्रेणिक राजा भी अंतिम समय में पश्चात्ताप करता रहा कि 'हाय ! मैंने चारित्र अंगीकार नहीं किया ।' फिर भी वह नरकगति में पहुंचा । इसीलिए पश्चात्ताप से स्वल्प कर्मों का ही क्षय होता है ॥१९६।। जीवेण जाणिउ विसज्जियाणि जाईसएसु देहाणि । थोवेहिं, तओ सयलं पि, तिहुयणं हुज्ज पडिहत्थं ॥१९७॥
शब्दार्थ : विभिन्न अगणित जीव-योनियों में परिभ्रमण करते हुए जीव ने एकेन्द्रियादि सैकड़ों जातियों में शरीर को उपदेशमाला