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ग्रहण करके पहले के जितने शरीरों को छोड़ा है, उन सारे त्यक्त शरीरों के अनंतवें भाग से भी तीनों जगत् (चौदह राजलोक) संपूर्ण भर जाते हैं तो सारे शरीरों की गिनती का तो कहना ही क्या ? फिर भी जीव को (जन्म-मरण के चक्कर से) संतोष नहीं होता ॥१९७॥ नह-दंतमंसकेसट्ठिएसु, जीवेण विप्पमुक्केसु । तेसु वि हविज्ज कइलास-मेरुगिरिसन्निभा कूडा ॥१९८॥
शब्दार्थ : पूर्वजन्मों में ग्रहण करके जीव के द्वारा छोड़े हुए नखों, दाँतों, मांस, बालों और हड्डियों का हिसाब लगाये तो कैलाश (हिमवान) मेरु आदि अनेक पर्वतों के समान अनंत ढेर हो जाय; क्योंकि उनका भी कोई अंत नहीं है ॥१९८॥ हिमवंतमलयमंदरदीवोदहिधरणिसरिसरासीओ । अहिअयरो आहारो, छुहिएणाहारिओ होज्जा ॥१९९॥
शब्दार्थ : संसार-समुद्र में परिभ्रमण करते हुए इस जीव ने अब तक इतना आहार किया है कि उसका हिसाब लगाये तो हिमवान पर्वत, मलयाचल पर्वत, मेरुपर्वत, जम्बूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप, लवण-समुद्र आदि असंख्य समुद्र और रत्नप्रभादि सात पृथ्वियाँ आदि कुल मिलाकर इनके समान बड़े-बड़े ढेर कर दें तो इनसे भी अधिक आहार भक्षण किया है। अर्थात् एक जीव ने अनंत पुद्गल-द्रव्यों का भक्षण किया है फिर भी उसकी क्षुधा शांत नहीं हुई ॥१९९॥ उपदेशमाला
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