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(वश) कर लिया, वह इस लोक और परलोक दोनों में सुखी होता है ।' ॥१८५॥ निच्चं दोससहगओ, जीवो अविरहियमसुहपरिणामो ।
नवरं दिन्ने पसरे, तो देइ पमायमयरेसु ॥१८६॥ __ शब्दार्थ : नित्य रागादि दोषों से लिपटा हुआ जीव
आत्मा निरंतर अशुभ परिणामों से भरा रहता है । इस आत्मा को निरंकुश छोड़ दिया जाय तो वह इस संसार-सागर में लोकविरुद्ध और आगमविरुद्ध कार्यों में पड़कर विषयकषायादि प्रमादों से अपनी बहुत हानि करता है । ____ मतलब है कि राग-द्वेष और प्रमाद से इस आत्मा का शीघ्र पतन होते देर नहीं लगती ॥१८६।। अच्चिय वंदिय पूइय, सक्कारिय-पणमिओ-महग्घविओ । तं तह करेइ जीवो, पाडेइ जह अप्पणो ठाण ॥१८७॥
शब्दार्थ : साधक ही चाहे किसी ने (गुणग्राहक दृष्टि से) पूजा की हो अथवा सुगंधित द्रव्य से व अलंकारों से उसका सत्कार किया हो । अनेक लोगों ने उसकी गुण-गाथा (स्तुति) गायी हो, या वंदन किया हो । उसके स्वागत में खड़े होकर विनयपूर्वक सम्मान किया हो या मस्तक झुकाकर नमस्कार किया हो अथवा आचार्य आदि पदवी देकर असका गौरव (महत्त्व) बढ़ाया हो; फिर भी वह साधक अपनी उपदेशमाला
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