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प्राप्त हो सकता है । अतः कोई भी बहाना बनाकर धर्मानुष्ठान में प्रमाद करना किसी भी हालत में उचित नहीं है ॥१८०॥ निहिसंपत्तमहन्नो, पत्थिंतो जह जणो निरुत्तप्पो ।
इह नासइ तह पत्तेअ बुद्धलद्धिं पडिच्छंतो ॥१८१॥ ___ शब्दार्थ : जैसे किसी निर्धन मनुष्य को अचानक रत्नादि
का निधान मिल जाये पर वह प्रमाद के वश होकर पुरुषार्थ नहीं करता तो उस निधि का भी नाश कर देता है। वैसे प्रत्येकबुद्ध की लब्धि की इच्छा करने वाला पुरुष भी तपसंयम आदि त्याग-बलिदान की क्रिया नहीं करता; ॥१८१॥ अर्थात् प्रमाद में पड़कर धर्माचरण को छोड़ देता है तो वह मोक्ष रूप निधान को नष्ट कर देता है । वह लब्धियों (सिद्धियों) के चक्कर में पड़कर कदापि आत्महित नहीं कर सकता ॥१८१॥ सोऊण गई सुकुमालियाए, तह ससग-भसग-भइणीए । ताव न वीससियव्वं, सेयट्ठी धम्मिओ जीव ॥१८२॥ __शब्दार्थ : 'ससक और भसक नाम के दोनों भाईयों की बहन सुकुमालिका की क्या हालत हुई ?' इसे सुनकर चाहे शरीर में खून और मांस सूख जाय और हड्डियाँ सफेद हो जाय; फिर भी मोक्षार्थी श्रेयस्कामी धार्मिक साधुओं को विषयादि का विश्वास नहीं करना चाहिए ॥१८२॥
उपदेशमाला