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शब्दार्थ : उत्तमकुल में उत्पन्न, राजकुल के भूषण और मुनियों में श्रेष्ठ श्री मेघकुमार मुनि बहुत-से अन्य मुनियों के पैरों की ठोकर आदि से होने वाला कठोर स्पर्श सहन करते हैं । इसी तरह अन्य मुनियों को भी सहन करना चाहिए
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॥१५४॥
अवरुप्परसंबाह, सुक्खं, तुच्छं सरीरपीडा य । सारण-वारण-चोयण-, गुरुजणआयत्तया य गणे ॥१५५॥
शब्दार्थ : गण (गच्छ) में रहने से मुनियों के परस्पर संघर्ष, विषयसुखों की तुच्छता, बड़ों के लिए शरीर को पीड़ा (सेवादि का कष्ट ), गुरुजनों की अधीनता, उनके द्वारा की गयी सारणा, वारणा, चोयणा, पड़िचोयणा वगैरह सहने पड़ते हैं ॥१५५॥
इक्कस्स कओ धम्मो, सच्छंदगईमईपयारस्स ? | किं वा करेड़ इक्को ?, परिहरउ कहं अकज्जं वा ? ॥१५६॥
शब्दार्थ : गुरुकुलवास ( गण ) को छोड़कर स्वच्छन्दगति, मति और प्रचार वाले अकेले साधु का संयमधर्म कैसे निभ सकता है ? वह अकेला मुनिधर्म की आराधना कैसे करेगा ? अकार्य करते हुए उसे कौन रोकेगा ? ॥ १५६ ॥ मतलब यह है कि निरंकुशता से (बिना बड़ों की आज्ञा के) अकेले साधु में संयमधर्म की यथार्थ आराधना होनी कठिन है । इसीलिए गुरुकुलवास में रहना चाहिए ।
उपदेशमाला
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