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परशुराम और सुभूम ने क्रमशः अपने ही स्वगोत्रीय ब्राह्मणों
और क्षत्रियों का नाश किया था ॥१५१॥ कुल-घर-नियय-सुहेसुअ,
सयणे य जणे य निच्च मुणिवसहा । विहरंति अणिस्साए,
जह अज्जमहागिरी भयवं ॥१५२॥ शब्दार्थ : मुनियों में श्रेष्ठ धर्मधुरंधर मुनि अपने कुल, घर, स्वजन, संबंधी और सामान्यजनों का आश्रय लिये बिना सदा विचरण करते हैं। जैसे (जिनकल्प का विच्छेद हो जाने पर भी) आर्य महागिरि भगवान् आर्य सुहस्ति को अपना साधुकुल सौंपकर स्वयं जिनकल्पी साधु के समान विचरण करने लगे। इसी प्रकार अन्य साधुओं को भी विचरण करना चाहिए ॥१५२॥ रुवेण जुव्वणेण य कन्नाहि सुहेहिं, वरसिरीए य । न य लुब्भंति सुविहिया, निदरिसणं जंबुनामुति ॥१५३॥
शब्दार्थ : जो सुविहत सादु होते हैं, वे रूप और यौवन से संपन्न कन्याओं में, सांसारिक सुखों में तथा पर्याप्त संपत्ति प्राप्त होने पर भी उसमें लुब्ध नहीं होते । इस विषय में जम्बूकुमार उत्तम नमूने हैं ॥१५३॥ उत्तमकुलप्पसूया, रायकुलवडिंसगा वि मुणिवसहा । बहुजणजइसंघट्ट, मेहकुमारु व्व विसहति ॥१५४॥ उपदेशमाला
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