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माया नियगमइविगप्पियंमि, अत्थे अपूरमाणंमि । पुत्तस्स कुणइ वसणं, चुलणी जह बंभदत्तस्स ॥१४५॥
शब्दार्थ : माता भी अपने दिमाग में सोची हुई बात पूरी न होने पर अपने पुत्र को तकलीफ देती है; जैसे चूलनी रानी ने ब्रह्मदत्त को अनेक कष्ट दिये थे ॥१४५॥ सव्वंगोवंगविगत्तणाओ, जगडणविहेडणाओ य । कासी य रज्जतिसिओ, पुत्ताण पिया कणयकेऊ ॥१४६॥
शब्दार्थ : राज्य के लोभ में अंधा बना हुआ पिता कनककेतु अपने पुत्रों के सभी अंगोपांगों का विविध प्रकार से छेदन करवा डालता था । ताकि वह राज्याभिषेक के योग्य न रहे । अतः पिता का पुत्रों के साथ संबंध भी कृत्रिम
और स्वार्थपूर्ण है ॥१४६॥ विसयसुहरागवसओ, घोरो भायाऽवि भायरं हणइ । ओहाविओ वहत्थं, जह बाहुबलिस्स भरहवई ॥१४७॥
शब्दार्थ : 'विषयसुख के राग (आसक्ति) वश भयंकर शस्त्रादि से भाई भी अपने भाई को मार डालता है। जैसे भरतचक्रवर्ती अपने भाई बाहुबलि को मारने के लिए दौड़ा था; वैसे ही तुच्छ स्वार्थवश भाई भी अपने भाई को मारने दौड़ता है । अतः धिक्कार है ऐसे स्वार्थ को !' ॥१४७॥ भज्जाऽवि इंदियविगार-दोसनडिया, करेइ पइपावं । जह सो पएसिराया, सूरियकंताइ तह वहिओ ॥१४८॥ उपदेशमाला