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कत्तो सुत्तत्थागम-पडिपुच्छणचोयणा, व इक्कस्स ? । विणओ वेयावच्चं, आराहणा य मरणते ? ॥१५७॥
शब्दार्थ : अकेले मुनि को सूत्रों (शास्त्रों) का अर्थ (वाचना), प्रतिपृच्छा, चोयणा (प्रेरणा) आदि कौन देगा ? विनय या वैयावृत्य का लाभ उसे कैसे मिलेगा ? अंतिम समय में मारणांतिक संल्लेखना-संथारा की आराधना कौन करायेगा ? ॥१५७॥ पिल्लिज्जेसणमिक्को, पइन्नपमयाजणाउ निच्चभयं । काउमणो वि अकज्जं, न तरइ काऊण बहुमज्झे ॥१५८॥
शब्दार्थ : निरंकुश एकाकी साधु आहार-पानी आदि की गवेषणा करने में (लज्जावश) पीड़ा पाता है; हमेशा अंगनाओं से धिरे जाने का भय बना रहता है । गुरुकुल-वास में रहने से साधु मन से भी अकार्य नहीं कर सकता, शरीर से उसमें प्रवृत्त होना तो बहुत ही दूर है । गुरुकुलवास में रहने से बहुत लाभ हैं । इसीलिए स्थविरकल्पी मुनियों को निरंकुश होकर एकाकी विहार करना उचित नहीं है ॥१५८॥ उच्चार-पासवण-वंत-पित्त-मुच्छाइ, मोहिओ इक्को । सद्दवभाणविहत्थो, निक्खिवइ व कुणइ उड्डाहं ॥१५९॥
शब्दार्थ : टट्टी, पेशाब, उलटी, पित्त और मूर्छा (बेहोशी), वायुविकार, विसूचिका (पेचिश) आदि बिमारियों के प्रकोप के समय अकेला साधु मार्ग में चलता-चलता कांपते हुए उपदेशमाला
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