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साध्वाचार का पालन करता हो, फिर भी किसी अशुभ निमित्त के मिलने पर वह जल्दी ही तप-संयम का घात कर देता है; यानी उसमें दोष लगाता है । इसीलिए एकाकी रहना अयुक्त है ॥१६१॥ वेसं जुण्णकुमारी, पउत्थवइयं च बालविहवं च । पासंडरोहमसइं, नवतरुणी थेरभज्जं च ॥१६२॥ सविडंकुब्भडरुवा, दिट्ठा मोहेइ जा मणं इत्थी । आयहियं चितंता, दूरयरेणं तं परिहरंति ॥१६३॥
शब्दार्थ : वेश्या, बड़ी उम्र की (प्रौढ़) कन्या, जिसका पति परदेश गया हुआ है, ऐसी महिला, बालविधवा, परिव्राजिका, कुलटा, नवयुवती, जिसका पति बूढा हो ऐसी अंगना, उद्भट रूपवती (छैलछबीली), अनिन्द्य-सुंदरी और विकार रहित मनोहर रूप वाली तथा देखने मात्र से ही जो मन को मोहित कर देती हो; आत्महित का विचार करने वाले साधु ऐसी सभी प्रकार की स्त्रियों के संसर्ग से अत्यंत दूर रहते हैं ॥१६२-१६३।। सम्मद्दिट्ठी वि कयागमो वि, अइविसयरागसुहवसओ । भवसंकडंमि पविसइ, एत्थं तुह सच्चई नायं ॥१६४॥
शब्दार्थ : 'सम्यग्दृष्टि और सिद्धांत को जानने वाला भी अत्यंत विषयसुख के राग के वश होकर भ्रवभ्रमण करता है। उपदेशमाला
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