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हाथ आदि से जल से भरे पात्र को नीचे रख देता है तो इससे संयम की विराधना आत्मा विराधना - होती है और यदि हाथ से पात्र रखकर बड़ी नीति आदि करता है तो जिन शासन की बदनामी होती है । इसीलिए बिना कारण के स्वच्छन्दता पूर्वक अकेला रहना किसी तरह भी ठीक नहीं है
॥१५९॥
एकदिवसेण बहुया, सुहा य, असुहा य जीव परिणामा । इको असुहपरिणओ, चइज्ज आलंबणं लद्धुं ॥ १६०॥
शब्दार्थ : एक ही दिन में जीव के कई बार शुभ या अशुभ परिणाम होते हैं । साधु एकाकी होने पर कदाचित् अशुभ परिणाण आ जाय तो किसी भी झूठे आलंबन - निमित्त को लेकर चारित्र को छोड़ देगा या अनेक दोष लगायेगा उस समय उसे कौन शुद्ध (सही) रास्ता बतायेगा ? ॥१६०॥ सव्वजिणप्पडिकुडं, अणवत्था थेरकप्पभेओ य । एक्को य सुआउत्तो वि, हणइ तवसंजमं अइरा ॥ १६९ ॥
शब्दार्थ : ऐसे अनेक कारणों से सभी जिनवरों ने एकाकी रहने का निषेध किया है । साथ ही एक के एकाकी रहने पर दूसरे अनेक मुनि भी उसकी देखादेखी एकाकी रहने लगते हैं । स्थविरकल्प का जो आचार है, उसमें इस प्रकार की विभिन्नता देखकर लोगों को इसमें शंका व अश्रद्धा पैदा होती है । एकाकी साधु अगर अप्रमत्त रूप से
उपदेशमाला
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