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उस संबंध में हे शिष्य ! तुम्हें सत्यकि का उदाहरण जानना चाहिए ॥१६४॥' यहाँ सत्यकि विद्याधर की कथा कहते हैं
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सुतवस्सिया ण पूया, पणाम - सक्कार - विणय - कज्जपरो । बद्धं पि कम्ममसुहं, सिढिलेइ दसारनेया व ॥ १६५॥
शब्दार्थ : 'निर्मल तप-संयम की आराधना करने वाले महामुनियों का वस्त्रादि देकर उनका आदर करना, मस्तक से उन्हें नमस्कार - वंदन करना, उनके गुणों की प्रशंसा करके उनका सत्कार करना, मुनि आवें तो खड़े होकर विनय करना इत्यादि कार्यों में तत्पर रहने वाला पुरुष कृष्ण वासुदेव के समान आत्मप्रदेश के साथ लगे हुए पूर्वकृत अशुभ कर्मों को शिथिल कर देता है ॥ १६५ ॥ ' यहाँ दश दशाह के नेता श्रीकृष्णजी का चरित्र संक्षेप में दे रहे हैं -
अभिगमण-वंदण-नमं-सणेण, पडिपुच्छणेण साहूणं । चिरसंचियं पि कम्मं, खणेण विरलत्तणमुवे ॥ १६६ ॥
शब्दार्थ : साधु-मुनिराजों के सम्मुख स्वागत के लिए जाने से, उनको वंदन-नमस्कार करने से और उन्हें सुखसाता पूछने से चिर संचित कर्मदल भी क्षणमात्र में क्षय हो जाते । इसीलिए सुसाधु को सद्भाव से नमस्कारादि करना चाहिए ॥१६६॥
केइ सुसीलासुहमाइ, सज्जणा गुरुजणस्स वि सुसीसा । विउलं जणंति सद्धं, जह सीसो चंडरुद्दस्स ॥१६७॥
उपदेशमाला
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