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बाण मारे जाने पर वह बाण को पकड़ने नहीं दौड़ता, अपितु बाण कहाँ से आया ? किसने मारा ? इसकी खोज करके बाण मारने वाले को पकड़ेगा ॥१३९॥ तह पुव्विं न कयं, न बाहए जेण मे समत्थोऽवि ।
इण्हिं किं कस्स व, कुप्पिमुत्ति धीरा अणुप्पिच्छा ॥१४०॥ __शब्दार्थ : धीरपुरुष दुःख के समय इस प्रकार चिन्तन
करे के 'हे आत्मन् ! तूने पूर्वजन्म में ऐसा सुकृत नहीं किया, जिससे तुझे समर्थ से समर्थ पुरुष भी बाधित पराभूत न कर सके । यदि तूने शुभ कर्म किया होता तो कौन तुझे पराभूत कर सकता ! अब किसी पर व्यर्थ ही क्यों कोप करता है ? क्योंकि तेरे पूर्वोपार्जित अशुभकर्म ही ऐसे हैं, जिनके उदय होने से दूसरे पर क्रोध करना व्यर्थ है ! ऐसा विचार करके धैर्यशाली ज्ञानी पुरुष क्रोध न करके समभाव ही रखते हैं ॥१४०॥ अणुराएण जइस्सऽवि, सियायपत्तं पिया धरावेइ । तहवि य खंदकुमारो, न बंधुपासेहिं पडिबद्धो ॥१४१॥ __ शब्दार्थ : 'स्कन्दककुमार मुनि पर अनुराग के कारण उसके पिता अपने पुत्र पर सेवकों द्वारा श्वेतछत्र कराते थे । परंतु वे मुनि बंधुवर्ग के स्नेहपाश में नहीं फंसे ।' ॥१४१॥
उपदेशमाला
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