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अत्यंत क्रोधपूर्वक किसी के जाति, कुल आदि की भर्त्सना करने या किसी के मर्म को प्रकट करके उसे झिड़कने या निन्दा करने से एक महीने के तप का क्षय कर देता है, किसी को शाप देने या किसी को विनाशकारी शब्द कहने से एक वर्ष का तप नष्टकर देता है और किसी को डंडा, तलवार, लट्ठी या किसी भी शस्त्र से मारने-पीटने या वध कर देने से जीवनपर्यंत के आचरित श्रमणत्व का ही खात्मा कर देता है। यह कथन भी व्यवहारनय की अपेक्षा से किया गया है' ॥१३४॥ अह जीवियं निकिंतइ, हंतूण य संजमं मलं चिणइ । जीवो पमायबहुलो, परिभमइ जेण संसारे ॥१३५॥
शब्दार्थ : संसार की मोहमाया में फंसा हुआ साधक अत्यंत प्रमादवश अपने संयमी जीवन को अपने ही हाथों नष्ट कर डालता है। और संयम का नाश करके फिर पापरूपी मल की वृद्धि करता रहता है । ऐसा प्रमाद बहुल जीव फिर संसार में जन्म मरण के चक्कर काटता रहता है ॥१३५॥ अक्क्रोसण-तज्जण-ताडणाओ, अवमाण-हीलणाओ अ । मुणिणो मुणियपरभवा, दड्ढप्पहारि व्व विसहति ॥१३६॥
शब्दार्थ : जिन मनुष्यों ने परभवों (अन्य जन्मों) का स्वरूप भलीभांति जान लिया है वे दृढ़प्रहारी मुनि की तरह अज्ञ जनों द्वारा दिये गये शाप, दुर्वचन या किये गये डांटउपदेशमाला
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