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फटकार, मारपीट, अपमान, अवहेलना, निन्दा आदि प्रहारों को समभाव से सह लेते हैं ॥ १३६ ॥
अहमाहओ त्ति न य पडिहणंति, सत्ताऽवि न य पडिसवंति । मारिज्जताऽवि जई, सहति सहस्समल्लु व्व ॥१३७॥
शब्दार्थ : इस व्यक्ति ने मुझे मारा-पीटा है, ऐसा जानते हुए भी सुविहित साधु उसे मारते-पीटते नहीं, किसी ने उन्हें शाप दिया है, तो भी वे बदले में उसे शाप नहीं देते । बल्कि किसी के द्वारा मारने पीटने पर भी वे समभाव से उसे सहते हैं । जैसे सहस्त्रमल्ल मुनि ने प्रहार आदि सहन किये थे, वैसे ही अन्य साधकों को सहने चाहिए ॥१३७॥ दुज्जणमुहकोदंडा, वयणसरा पुव्वकम्मनिम्माया । साहूण ते न लग्गा, खंतिफलयं वहंताणं ॥ १३८ ॥
शब्दार्थ : दुर्जनों के मुख रूपी धनुष से दुर्वचन रूपी बाण छूटते हैं, लेकिन अपने आगे क्षमा रूपी ढाल रखने वाले साधुओं को पूर्व कर्मों के द्वारा निर्मित हुए वे दुर्वचन भी नहीं लगते ॥१३८॥
पत्थरेणाहओ कीवो, पत्थरं डक्कुमिच्छइ । मिगारि सरं पप्प, सरुप्पत्तिं विमग्गइ ॥१३९॥
शब्दार्थ : कुत्ते को पत्थर मारने पर वह पत्थर मारने वाले को नहीं, किन्तु पत्थर को काटने दौड़ेगा और सिंह को
उपदेशमाला
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