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भोजन नहीं दिया तो उन पर कोपायमान होकर अपना पतन कर लिया था ॥१२२॥ भवसयसहस्स दुलहे, जाइ-जरा-मरणसागरुत्तारे । जिणवयणमि गुणायर ! खणमवि मा काहिसि पमायं ।१२३। ___ शब्दार्थ : गुणनिधे ! लाखों जन्मों में भी अतिदुर्लभ और
जन्म, मृत्यु और बुढ़ापे के दुःख-समुद्र से पार उतारने वाले जिनवचन को पाकर क्षणभर भी प्रमाद न कर ॥१२३॥ विषय, कषाय और विकथादि प्रपंचों को छोड़कर एकमात्र वीतराग के सिद्धान्त की आराधना में लग जा । जं न लहइ, सम्मत्तं, लभ्रूण वि जं न एइ संवेगं । विसयसुहेसु य रज्जइ, सो दोसो रागदोसाणं ॥१२४॥
शब्दार्थ : जो जीव सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता अथवा सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर जिसमें संवेग (मोक्ष प्राप्ति की तीव्रता) नहीं आया; जो अभी तक विषयसुखों में ही रक्त रहता है, तो समझो कि उसके राग-द्वेषों का ही वह दोष है ॥१२४॥ वास्तव में समस्त दोषों के कारण राग और द्वेष हैं । इनका त्याग करने पर ही साधक में सम्यग्दृष्टि सुदृढ़ होती है. संविग्नता (मोक्ष प्राप्ति के लिए तडपन) पैदा होती है ॥१२४॥ तो बहुगुणनासाणं, सम्मत्तचरित्तगुणविणासाणं । न हु वसमागंतव्वं, रागदोसाण पावाणं ॥१२५॥ उपदेशमाला
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