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धम्ममिणं जाणंता, गिहिणो वि दड्डव्वया किमुअ साहू ? । कमलामेलाहरणे, सागरचंदेण इत्थुवमा ॥१२०॥
शब्दार्थ : जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित इस धर्म को जानने वाले गृहस्थ (श्रावक) भी दृढ़व्रती (नियम-व्रतों में पक्के) होते हैं, तो फिर निर्ग्रन्थ साधुओं के दृढ़वती होने में कहना ही क्या ? इस विषय में कमलामेला का अपहरण कराने वाले सागरचन्द्र श्रावक का उदाहरण प्रसिद्ध है ॥१२०॥ देवेहिं कामदेवो, गिही वि नवि चाइओ तवगुणेहिं । मत्तगयंद-भुयंगम-रक्खसघोरट्टहासेहिं ॥१२१॥
शब्दार्थ : तप के गुण से युक्त कामदेव श्रावक को अपने व्रत-नियम से चलायमान करने के लिए इन्द्र के मुख से प्रशंसा सुनकर अश्रद्धाशील बने हुए देवों ने मदोन्मत्त हाथी, क्रूर सर्प और राक्षसों के भयंकर अट्टहास आदि प्रयोग किये, लेकिन वह गृहस्थ होकर भी जरा भी विचलित न हुआ ॥१२१॥ भोगे अभुंजमाणा वि, केइ मोहा पडंति अहोगई (अहरगइं)। कुविओ आहारत्थी, जत्ताइ-जणस्स दमगुव्व ॥१२२॥
शब्दार्थ : कई जीव सांसारिक इन्द्रियजन्य विषयों का उपभोग नहीं कर पाते; लेकिन मूढ़तावश दुश्चिन्तन करके अधोगति में जाकर गिरते हैं । जैसे यात्रा के लिए वन में आये हुए पौरजनों ने जब आहारार्थी द्रमक (भिक्षुक) को उपदेशमाला