________________
कुतूहल पैदा करने वाले चमत्कार ( जादू, तमाशा या खेल ) बताने, आदेश (तेजी-मंदी या यह बात इसी तरह होगी) करने से या भूतिकर्म करने (राख, वासक्षेप आदि को मंत्रित करके देने) से या इस प्रकार के अनेक पापोपदेशक करने से, दूसरों से करवाने से या करने वाले का समर्थन - अनुमोदन करने से साधु के तप-संयम का क्षय हो जाता है ॥ ११५ ॥ इसीलिए मुनि साधुधर्म के विपरीत ऐसे आचरण कदापि न करें ।
जह - जह कीरइ संगो, तह-तह पसरो खणे -खणे होइ । थोवो वि होई बहुओ, न य लहइ धिइं निरुंभंतो ॥ ११६ ॥
शब्दार्थ : साधु ( इस दृष्टि से ) ज्यों-ज्यों गृहस्थों का परिचय करता जाता है, त्यों-त्यों उसका फैलाव क्षण-क्षण (दिनोंदिन बढ़ता जाता है । और एक दिन वह थोड़ा-सा परिचय भी बहुत ज्यादा हो जाता है । फिर गुरु आदि के द्वारा उस साधु को रोक-टोक करने पर भी वह रुकता नहीं, धैर्य धारण नहीं करता ||११६ || आखिरकार वह साधु संयम से भ्रष्ट हो जाता है । इसीलिए (अर्थ - काम - दृष्टि से) गृहस्थों का परिचय साधु न करें ।
जो चयइ उत्तरगुणे, मूलगुणे वि अचिरेण सो चयइ । जह-जह कुणइ पमायं, पेलिज्जइ तह कसाएहिं ॥११७॥
शब्दार्थ : जो मुनि उत्तर - गुणों को छोड़ता जाता है, वह शीघ्र ही एक दिन मूल - गुणों को तिलांजलि दे देता है ।
उपदेशमाला
३८