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शब्दार्थ : वृद्धावस्था, रुग्णता, अशक्ति, विकलांगता आदि किसी कारणवश अगर एक ही स्थान पर नित्य रहना पड़े तो चारित्र (संयम) में भलीभांति प्रयत्नशील रहना चाहिए । जैसे उस समय में वृद्धावस्थादि कारणों से आचार्य संगम स्थविर स्थिरवासी होते हुए भी चारित्र में प्रयत्नशील थे; देव भी उनसे प्रभावित होकर उनके सान्निध्य में रहता था ॥११०॥ एगंत नियावासी, घरसरणाईसु जइ ममत्तं पि । कह न पडिहति, कलिकलुस-रोसदोसाण आवाए ॥१११॥
शब्दार्थ : बिना किसी विशेष कारण के एक ही स्थान पर हमेशा जमा रहने वाला साधु मोह-ममता के कारण अगर उस मकान की मरम्मत कराने आदि दुनियादारी के काम कराता है या पैसे इकट्ठ करने-कराने आदि संसार-व्यवहार में पड़ता है तो वह कलह, क्लेश, रोष, राग (मोह) द्वेष
आदि दोषों से कैसे बचा रह सकता है ? प्रमादी साधु उक्त दोषों से कदापि बच नहीं सकता ॥१११॥ अवि कत्तिउण जीवे, कत्तो घरसरणगुत्तिसंठप्पं ? । अवि कत्तिआ य तं तह, पडिआ असंजयाण पहे ॥११२॥
शब्दार्थ : घर की लिपाई-पोताई या चिनाई तथा रक्षा के लिए दीवार बनाने आदि कार्य जीवों के वध बिना कैसे हो सकते हैं ? इसीलिए जो साधु जीवघातक गृहकार्यादि आरंभों उपदेशमाला
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