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नहीं छोड़ने वाले और सुशील शिष्य इस संसार में धन्यभागी हैं ॥९७॥
जीवंतस्स इह जसो, कित्ती य मयस्स परभवे धम्मो । सगुणस्सय निग्गुणस्स य, अजसो कित्ती अहम्मो य ॥९८॥
शब्दार्थ : गुणवान सुविनीत शिष्य को जीते जी (प्रत्यक्ष) यश और कीर्ति प्राप्त होती है और मरने के बाद अगले जन्म में भी धर्म की प्राप्ति सुखपूर्वक होती है । किन्तु दुर्विनीत शिष्य की इस जन्म में भी अपयश और अपकीर्ति ( बदनामी) होती है तथा आगामी जन्म में भी अधर्म यानी नरकादि गति प्राप्त होती है ॥ ९८ ॥
वुड्ढावासे वि ठियं, अहव गिलाणं गुरुं परिभवंति । दत्तुव्व धम्मवीमंसएणं, दुस्सिक्खियं तं पि ॥९९॥
शब्दार्थ : बुढ़ापे में विहार करने की अशक्ति के कारण या किसी दुःसाध्य रोग के कारण एक जगह स्थित गुरु का जो तिरस्कार करते हैं, वे दत्त नामक शिष्य की तरह अपने धर्म से भ्रष्ट और दु:शिक्षित (दुष्ट शिष्य) हैं ॥९९॥ आयरियभत्तिरागो, कस्स सुनक्खत्तमहरिसिसरिसो । अवि जीवियं ववसियं, न चेव गुरुपरिभवो सहिओ ॥ १०० ॥
शब्दार्थ : आचार्य 'गुरु' पर किसका भक्तिराग महर्षि सुनक्षत्र जैसा है, जिसने अपने प्राणों का त्याग कर दिया;
उपदेशमाला
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