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मगर गुरु का पराभव सहन नहीं किया अत: सभी को ऐसा भक्तिराग अपनाना चाहिए ॥१००॥
पुण्णेहिं चोइया पुरक्खडेहिं, सिरिभायणं भविअसत्ता । गुरुमागमेसिभद्दा, देवयमिव पज्जुवासंति ॥१०१॥
शब्दार्थ : जो पूर्वकृत पुण्य से प्रेरित होता है, भविष्य में जिस भव्यजीव का शीघ्र कल्याण होने वाला होता है । वह सद्गुणों का निधान गुरुमहाराज की इष्टदेव की तरह सेवा करता है ॥१०१॥
बहु सोक्खसयसहस्साण, दायगा मोयगा दुहसहस्साणं । आयरिया फुडमेअं, केसि - पएसि य ते हेऊ ॥१०२॥
शब्दार्थ : यह बात स्पष्ट है कि धर्माचार्य अनेक प्रकार से शत - सहस्त्र सुखों को देने वाले और हजारों दुःखों से छुड़ाने वाले होते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं । जैसे प्रदेशीराजा के लिए श्री केशीगणधर सुख के हेतु हुए ॥१०२॥ नरयगइगमण-पडिहत्थाए, कए तह पएसिणा रण्णा । अमरविमाणं पत्तं, तं आयरियप्पभावेणं ॥ १०३॥
शब्दार्थ : नरकगति में गमन करने के लिए उद्यत प्रदेशीराजा को आचार्य (केशी श्रमण) के प्रताप से देव विमान प्राप्त हुआ । सचमुच, आचार्य - (गुरु) सेवा महान् फलदात्री होती है ॥१०३॥
उपदेशमाला
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