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शब्दार्थ : जिनके मस्तक पर गीले चमड़े की पट्टी बांधी गयी और धूप लगने से सूखने के कारण आँखें बाहर निकल आयीं; फिर भी मैतार्य भगवान् मन से भी ( पीड़ा देने वाले पर) क्रोधित नहीं हुए ॥ ९१ ॥
जो चंदणेण बाहु, आलिंपड़ वासिणा वि तच्छेइ । संथुइ जो अनिंद, महरिसिणो तत्थ समभावा ॥९२॥
शब्दार्थ : मुनि की बाहुओं पर कोई चंदन का लेप करे या कोई उसे कुल्हाड़ी से काटे; कोई स्तुति (प्रशंसा) करे और कोई निन्दा करे; परंतु महर्षि सब पर समभावी रहते हैं ॥९२॥
सीहगिरिसुसीसाणं भद्दं, गुरुवयणसद्दहंताणं । वयरो किर दाही, वायणत्ति न विकोविअं वयणं ॥ ९३ ॥
शब्दार्थ : गुरुवचनों पर श्रद्धा रखने वाले सिंहगिरि आचार्य के सुशिष्यों का कल्याण हो । गुरुमहाराज ने जब अपने शिष्यों से कहा कि 'यह वज्रस्वामी तुम्हें वाचना देगा, तो उन्होंने तर्क-वितर्क करके गुरु के वचनों का लोप नहीं किया' ॥९३॥
मिण गोणसंगुलीहिं, गणेहिं वा दंतचक्लाइं से । इच्छंति भाणिऊणं, कज्जं तु त एव जाणंति ॥ ९४ ॥
शब्दार्थ : ' अरे शिष्य ! इस सांप को अपनी उंगली से नाप अथवा इसके दांत दंतस्थान से गिन; ' इस प्रकार गुरु
उपदेशमाला
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