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जो जस्स वट्टए हियए, सो तं ठावेइ सुंदरसहावं । वग्घीच्छावं जणणी, भदं सोमं च मन्नेइ ॥८४॥ ___शब्दार्थ : जो जिसके हृदय में बस जाता है, वह उसे
सुंदर स्वभाव वाला मानने लगता है। बाघ की माँ अपने बच्चे को भद्र और सौम्य ही मानती है ॥८४॥ । मणि-कणगरयण-धण पूरियंमि, भवणंमि सालिभद्दोऽवि । अन्नो किर मज्झ वि, सामिओत्ति जाओ विगयकामो ॥४५॥
शब्दार्थ : मणि, कंचन, रत्न और धन से भरे हुए महल में रहने वाला शालिभद्र सेठ "मेरे ऊपर भी और कोई स्वामी है" ऐसा जानकर विषय भोगों से विरक्त हो गया ॥८५।। न करंति जे तव-संजमं च, ते तुल्लपाणिपायाणं । पुरिसा समपुरिसाणं, अवस्स पेसत्तणमुविंति ॥८६॥
शब्दार्थ : जो जीव तप-संयम का आचरण नहीं करता, वह आगामी जन्म में अवश्य ही पुरुष के समान हाथ पैर वाला पुरुष की सी आकृति वाला दास बनकर दासत्व प्राप्त करता है ॥८६॥ सुंदर-सुकुमाल-सुहोइएण, विविहेहिं तवविसेसेहिं । तह सोसविओ अप्पा, जह नवि नाओ सभवणेऽवि ॥८७॥
शब्दार्थ : शालिभद्र ने मुनि बनकर विविध प्रकार की विशिष्ट तपश्चर्याओं से अपने शरीर को इस प्रकार सुखा दिया कि अपने घर जाने पर भी वे पहचाने नहीं जा सके ॥८७॥ उपदेशमाला
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