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जइ ता, जणसंववहारवज्जियमकज्जमायरइ अन्नो । जो तं पुणो विकत्थइ, परस्स वसणेण सो दुहिओ ॥ ७१ ॥
शब्दार्थ : यदि कोई जीव लोकव्यवहार में वर्जित चौर्यादि अकार्य करता है तो वह अनाचार - सेवन से स्वयं दुःखी होता है और जो पुरुष उस पापकर्म को अन्य लोगों के समक्ष बढ़ा-चढ़ाकर कहता है, वह दूसरे के व्यसन (आदत) से दुःखी होता है ॥ ७१ ॥
सुट्ठवि उज्जममाणं पंचेव, करिंति रित्तयं समणं । अप्पथुई परनिंदा, जिम्भोवत्था कसाया य ॥७२॥
शब्दार्थ : तप, संयम आदि धर्माचरण में भलीभांति पुरुषार्थ करने वाले साधु को ये पाँच दोष गुणों से खाली कर देते हैं - १. आत्मस्तुति, २. परनिन्दा, ३. जीभ पर असंयम, ४. जननेन्द्रिय पर असंयम और ५. कषाय ॥ ७२ ॥ परपरिवायमईओ, दूसइ वयणेहिं जेहिं जेहिं परं । ते ते पावइ दोसे, परपरिवाई इय अपिच्छो ॥७३॥
शब्दार्थ : दूसरों की निन्दा करने की बुद्धिवाला पुरुष जिन-जिन वचनों से पराये दोष प्रकट करता है, उन-उन दोषों को स्वयं में भी धीरे-धीरे प्रवेश कराता जाता है । ऐसा पुरुष वास्तव में अदर्शनीय है । अर्थात् परनिन्दाकारी पापी का मुख भी देखने योग्य नहीं है ||७३ |
उपदेशमाला
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