Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
हैं । हमारे ग्रन्थों में ऐसा कहा है कि चैतन्य नामक परिणति से विशिष्ट हो रहां यह शरीर ही श्रात्मा है, अतः जीवों को पृथिवो प्रादिक से निराला स्वतन्त्र द्रव्यपना युक्तियों से नहीं बन पाता है । अर्थात्पिठी, गुड़, महुग्रा, पानी, इनके सड़ाने से मदशक्ति नवीन उपज जाती है, उस मद शक्ति से युक्त हो रहा मद्य उक्त चार पदार्थों से कोई निराला तत्व या द्रव्य नहीं है, इसी प्रकार "पृथिव्यप्तेजोवायुरिति तत्वानि” “तत्समुदये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा तेभ्यश्चैतन्यं" यह चैतन्य के उपजने की पद्धति है ।
उस चैतन्य से युक्त हो रही काय को ही स्थूल - बुद्धि व्यवहारी जन जीव कह देते हैं इस प्रकार कोई दूसरा पण्डित कह रहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि चार्वाक पण्डित भी तिस 'द्रव्यारिग' के अधिकार पड़े हुये "जीवाश्च" सूत्र करके पराभव को प्राप्त कर दिया गया समझ लेना चाहिये, इस बात का ग्रन्थकार दूसरी वार्तिक द्वारा निवेदन किये देते हैं—
दमादिभूतचतुष्काच्च द्रव्यांतरतया गतिः । न तु देहगुणत्वादिरिति देहात् परे नराः ॥२॥
पृथिवी आदि चारों भूतों से द्रव्यांतरपने करके जीव की ज्ञप्ति हो रही है, बुद्धि या चैतन्य को देह का गुणपना आदि तो कथमपि नहीं है, इसको कहा जा चुका है । इस कारण शरीर से भिन्न जीव द्रव्य है, यह सिद्धान्त निर्णीत है ।
पृथिव्यादिभ्यो द्रव्यांतरं जीव इति प्रागुक्तात्साधनाद्भिन्नलक्षणत्वादेर्विनि निश्चयः । तथा देहस्य गुणः कार्यं वा चेतनेत्यपि " न विग्रहगुणो बोधः तत्रानध्यवसीयते" इत्यादेर्वा निरस्तत्वान्न देहगुणत्वादिजवानामतो भेदात् द्रव्यांतगण्येव जीवाः । एवं पंचास्ति कायद्रव्य । णि धर्माधर्माकाशपुद्गल जीवाख्यानि प्रसिद्धानि भवति ।
पहिले सूत्र के अवतार प्रकरणों में कहे जा चुके भिन्न लक्षणत्व, भिन्न प्रमाणवेद्यत्व, श्रादि हेतु करके इस बात का विशेषतया निर्णय कर लिया जाता है कि पृथिवो आदिकों से निराला द्रव्य जीव है अर्थात् -" विभिन्नलक्षणत्वाच्च भेदश्चैतन्यदेहयोः । तत्वान्तरतया तोयतेजोवदिति मीयते ॥ भिन्नप्रमाण वेद्यत्वादित्यप्येतेन वरिणतम् । साधितं वहिरन्तश्च प्रत्यक्षस्य विभेदतः ॥ " इन वार्त्तिकों द्वारा जीव द्रव्य को पृथिवी आदिक से निराला तत्व साध दिया चुका है चार्वाक उस ग्रन्थ को पढ़ लें ।
तथा देह का गुण हो रहा अथवा शरीर का कार्य हो रहा चैतन्य है, "ह चार्वाकों का कहना भी 'न विग्रहगुणो वोधस्तत्रानध्यवसायतः । स्पर्शादिवत्स्वयं तद्वदन्यस्यापि तथा गतेः । तद्गुणत्वे हि बोधस्य मृतदेहेऽपि वेदनम् । भवेश्वगादिवद्वाह्यकररणज्ञानतो न किम् ।।" इत्यादि वार्तिकों करके पूर्व प्रकरणों में निराकृत किया जा चुका है, ग्रतः जीवों को देह का गुणपना, जीवित शरीर का गुरणपना, पृथिवी आदिका साधारण गुणपना, मन का गुणपना, आदि सिद्ध नहीं होपाता है, इस कारण पृथिवी आदि से भिन्न होजाने से जीव पदार्थ न्यारे न्यारे स्वतंत्र द्रव्य हैं किसी की पर्याय या किसी के गुरण नहीं हैं और इस प्रकार व्यबस्था होचुकने पर धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव संज्ञा वाले पांच मस्तिकाय द्रव्य प्रसिद्ध हो जाते हैं ।