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हो जाते हैं (आही) मानसिक बीमारियाँ ( खीणंति) क्षीण हो जाती हैं (य) और [ जिनका ] (थोत्तं) स्तोत्र ( घोरोवसग्गं) घोर उपसर्गों को (हरेदि) हरता है (तं) उन (उसहं जिणिंद) ऋषभ जिनेन्द्र को (हं) मैं ( सम्म) सम्यक् रूप से (वंदामि ) वन्दन करता हूँ।
अर्थ - जिनके दर्शन मात्र से रोग शमन हो जाते हैं, शारीरिक बीमारियाँ प्रशमित हो जाती हैं, शोक नष्ट हो जाते हैं, मानसिक बीमारियाँ क्षीण हो जाती हैं और जिनका स्तोत्र घोर उपसर्गों को हरता है, उन प्रथम जिनेन्द्र श्री आदिनाथ भगवान को मैं सम्यक् रूप से वन्दन करता हूँ।
सम्म-भावेण भावेदि,
उसहजिण - सं-त्थुदिं । जो पढेदि सुणेदि सो, सग्ग- मोक्खं च पावदे ॥ 9 ॥
अन्वयार्थ – (उसहजिण-सं-त्थुदिं) ऋषभजिन संस्तुति को (जो ) जो (सम्मभावेण भावेदि) सच्ची भावना से भाता है ( पढेदि) पढ़ता है अथवा (सुणेदि) सुनता है वह (सग्ग- मोक्खं) सभी मोक्ष को (पावदे) पाते हैं।
अर्थ- प्रथम तीर्थंकर ऋषभजिन भगवान की इस श्रेष्ठ स्तुति को जो सम्यक् भावना से भाता है, पढ़ता है अथवा सुनता है, वह सभी प्रकार के सुखों को प्राप्त कर मोक्ष को पाता है।
34 :: सुनील प्राकृत समग्र