Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
करनी चाहिये, इहलोक या परलोक के सुखों के लिए भी नहीं बल्कि विशुद्ध कर्म-निर्जरा के लिए, आत्म-शुद्धि के लिए करनी चाहिये । ” समाज में व्याप्त ईर्ष्या व द्वेष की भावना, संघों के अधिकारियों का संकीर्ण व अवसरवादी व्यवहार, साम्प्रदायिक स्वार्थपरता व संकीर्णता की भावना भी आपको कचोटती रहती है तथा आप उस पर समयसमय पर तीव्र प्रहार करते हैं ।
श्रावक - धर्म विश्लेषक
वर्तमान में आगम ज्ञान के प्रति श्रावक - श्राविकाओं में दिनानुदिन रुचि अल्प होती जा रही है, आगम में अभिरुचि रखने वाले प्रबुद्ध चिंतनशील वर्ग का भी अभाव हो रहा है। उसके बारे में आप निरंतर प्रकाश डालते हैं। तथा श्रावक-श्राविकाओं को ज्ञानार्जन में सहयोग प्रदान करते हैं तथा आगम में अभिरूचि बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। आपने श्रावक-धर्म पर सुंदर प्रेरणादायक साहित्य का निर्माण किया है तथा विद्वान् श्रावकों के अनेक ग्रन्थों का अनुवाद एवं विश्लेषण किया है। आपका महान् ग्रन्थ " शुक्ल - प्रवचन" श्रावकरत्न श्रीमद् रायचन्द्रभाई मेहता की अनमोल कृति है । इसी प्रकार “देवाधिदेव रचना" सुप्रसिद्ध आगमज्ञ श्रावक श्री हरजसराय की कृति है । “वृहदालोयणा” ग्रन्थ श्रावक रन लाला रणजीतसिंह की लोकप्रिय कृति है | आप निरंतर प्रेरणा देते हैं कि श्रावक वर्ग केवल नाम से ही 'जैन' नहीं रहे किन्तु आगम के प्रकाश में अपने जीवन को प्रकाशित कर कर्म से 'जैन' बनें ।
मेरी आकांक्षा
मेरी इच्छा है कि आपके सभी व्याख्यान नियमित रूप के लिपिबद्ध हों, विभिन्न जैन व अजैन पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित हों तथा वे ग्रन्थ के रूप में भी प्रकाशित हों। इससे जैन आगम की जो व्याख्या आपके प्रवचनों में प्रवाहमान है, उसका लाभ सभी प्रबुद्ध वर्ग को प्राप्त होता रहेगा ।
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पचासवां पावन दीक्षा प्रसंग
जैनसंस्कृति वस्तुतः श्रमणसंस्कृति है । यहाँ पर श्रमण दीक्षा को विशेष महत्त्व दिया गया है। दीक्षा केवल बाह्य वेषभूषा का ही परिवर्तन नहीं है, यह समूचे जीवन का आध्यात्मिक रूपांतरण है, जब व्यक्ति बहिरात्म-भाव को त्याग कर अंतरात्म भाव में प्रविष्ट होता है एवं परमात्मभाव की ओर बढ़ने का संकल्प लेता है । यह असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर व मृत्यु से अमरत्व की ओर बढ़ने का अध्यवसाय है । 'बोध पाहुड' ( सूत्र संख्या ४०१ ) में आचार्य ने कहा है- “ तृण और कनक (स्वर्ण) में जब समान बुद्धि आती है, तभी उसे प्रव्रज्या (दीक्षा) कहा जाता है।" जैन दीक्षा का पालन करना अत्यंत कठिन कार्य है लेकिन जो अंतरहृदय से पालन करते हैं, वे मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर हो जाते हैं । भगवान् महावीर ने ऐसे ही श्रमणों के बारे में उत्तराध्ययन सूत्र (अध्ययन ३५ /गाथा २१ ) में कहा है कि “ममता-रहित, आश्रव-रहित वीतरागी अणगार श्रमण धर्म का परिपालन करके सदा के लिए इस संसार से मुक्त हो जाता है ।” महाश्रमण श्री सुमनमुनिजी के साधनाशील दीक्षा जीवन का पचासवाँ वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। इस पावन प्रसंग पर मैं अपने हृदय की भावाञ्जलि अर्पित करता हूँ । आपश्री इसी प्रकार निरंतर हमारे जैसे अल्पज्ञों को ज्ञान की सरिता में बहाकर उन्हें धर्म की ओर उन्मुख करते रहें । आप नीरोग रहें तथा यह पावन प्रसंग हम सब लोगों को हमेशा धर्म की प्रेरणा प्रदान करता रहे, इसी मंगल कामना के साथ सविनय भक्ति पूर्वक वंदन ! अभिनंदन !!
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→ दुलीचन्द जैन 'साहित्यरत्न', सचिव, जैन विद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान चेन्नई - ६००००१.
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