Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai

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Page 584
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि गच्छवास छोडइ नहीं गुणवंत, बकुश कुशील पंचम आरइ; ज्योतिर्धर संतों के तप-त्याग-तितिक्षा, संयम-साधना एवं 'समयसुंदर' कहइ सौ गुरू साचउ, आप तरि अवरां तारइ।।३।।' अंत में समस्त कर्म क्षय करके परमात्मपद प्राप्ति तक का साध के गणों से संदर्भित उनका एक पद जो आसावरी वर्णन है। इसकी संक्षेपशैली का एक उदाहरण देखिए - राग पर गाया जाता है, इसमें छः काय जीव के रक्षक धर्मघोष तणां शिष्य, धर्मरुचि अणगार, • और २२ परिषह को जीतनेवाले परम संवेगी साधु को कीडियो नी करुणा, आणी दया अपार । भक्तिपूर्वक वंदना की है। कड़वा तुंबानो कीधो सगळो आहार, धन्य साधु संजम धरइ सूधउ, कठिन दूषम इण काल रे। सर्वार्थ सिद्ध पहुँत्या, चवि लेसे भव पार।।२ जाव-जीव छज्जीवनिकायना, पीहर परम दयाल रे। ध.।१। उक्त दो दोहों में जैन आगम-साहित्य-वर्णित धर्मरुचि साधु सहै बावीस परिसह, आहार ल्यइ दोष टालि रे। अणगार के लम्बे घटना प्रसंग को 'गागर में सागर' की ध्यान एक निरंजन ध्याइ, वइरागे मन वालि रे। ध.।२। भांति समाविष्ट कर दिया है। साथ ही कीड़ी जैसे तुच्छ सुद्ध प्ररूपक नइ संवेगी, जिन आज्ञा प्रतिपाल रे। प्राणी के प्रति करुणा वृत्ति की अभिव्यञ्जना कर करुण समयसुंदर कहइ म्हारी वंदना, तेहनइ त्रिकाल रे।ध.।३।' रस का उत्कृष्ट उदाहरण भी प्रस्तुत कर दिया है। आचार्य श्री जयमलजी म. रचित साधु-वंदना __ आचार्य श्री जयमलजी म. ने अनेकों स्तुति, सज्झाय, औपदेशिक पद और चरित को अपने काव्य का विषय वि. सं. १८०७ में आचार्य जयमलजी महाराज ने बनाकर यत्र-तत्र साधु के गुणों का वर्णन किया है। 'साध-वंदना' की रचना की। उसमें १११ पद्य है। इस आपकी भाषा राजस्थानी मिश्रित हिंदी है, आपकी कुछ रचना का इतना महत्व है कि वह जैन श्रावक-श्राविकाओं रचनाएँ 'जय वाणी' में संग्रहित है। एवं साधकों की दैनिक उपासना का अंग बन गया है। यह काव्यकृति जहाँ सरल, भावपूर्ण और बोधगम्य है, आचार्य श्री आसकरणजी म. कृत साधु-वंदना वहीं संक्षेपशैली में भक्ति का अगाध महासागर भी है। ___ आचार्य श्री आसकरण जी, म. की साधु वंदना को ___उक्त रचना में अतीतकाल में हुई अनंत चौबीसी भी वही स्थान प्राप्त है, जो आचार्य श्री जयमलजी म. की (चौबीस तीर्थंकर) की स्तुति वर्तमानकालीन चौबीसी, साधु वंदना को है। आप ने जैन हिंदी साहित्य की अपार महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकर एवं अन्य सभी अरिहंत भगवंतों । श्री वृद्धि की है, अनेकों खंडकाव्य और मुक्तक रचनाएँ की स्तुति करने के पश्चात् संत मुनिवृंद के गुणानुवाद हैं। आप द्वारा रची हुई मिलती हैं। इसमें आगम साहित्य से संबंधित सभी मोक्षगामी आत्माओं वि. सं. १८३८ में आपने ‘साधु-वंदना' लिखी, जो की नामोल्लेखपूर्वक स्तुति हैं। जैन भक्ति साहित्य में काफी लोकप्रिय है। उत्तराध्ययन, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, अंतकृतदशांग, संत निःस्वार्थ साधक होता है, वह भव सागर से स्वयं अनुत्तरौपपातिक, सुखविपाकसूत्र में वर्णित अनेक महान् भी तैरता है और अन्य भव्य प्राणियों को भी जहाज के १ समयसुंदरकृति कुसुमांजलि । संग्राहक - अगरचंद नाहटा, प्र.सं. २ बड़ी साधु वंदना - पद्य ५१-५२ १५० प्राचीन जैन हिंदी साहित्य में संत स्तुति | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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