Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
View full book text
________________
साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
ध्यान : स्वरूप और चिन्तन
श्री रमेश मुनि शास्त्री
निर्जरा तत्त्व का ही एक प्रकार है - ध्यान । अशुभ ध्यान / आर्त्त-रौद्र संसार वृद्धि का कारण है तो शुभ ध्यान/धर्म-शुक्ल शाश्वत सुखों की प्राप्ति में सहायक है। वस्तुतः मन का अन्तर्मुखी एवं अन्तर्लीन हो जाना ही ध्यान है। ध्यान - बिखरी हुई चित्तवृत्तियों के एकीकरण का अमोघ साधन है। ध्यान अज्ञानांधकार को विनष्ट कर अन्तश्चेतना में आलोक ही आलोक व्याप्त कर उसे ज्योतिर्मय बना देता है। ध्यान का सांगोपांग विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं - विद्वद्वर्य श्री रमेशमुनि जी म. 'शास्त्री' ।
- सम्पादक
तप अध्यात्म-साधना का प्राणभूत तत्त्व है। जैसे शरीर में उष्मा जीवन के अस्तित्त्व का ज्वलन्त प्रतीक है, वैसे ही साधना में तप उस के ज्योतिर्मय अस्तित्त्व को अभिव्यक्त करता है। तप के अभाव में न निग्रह होता है और न अभिग्रह ही हो सकता है।
तप मूलतः एक है, अखण्ड है तथापि सापेक्ष दृष्टि से उसके दो वर्गीकृत रूप है। प्रथम बाह्य तप है और द्वितीय आभ्यन्तर तप है। इन दोनों के छः - छः प्रकार हैं। कुल मिलाकर तप के द्वादश भेद हैं। संक्षेप में उन का निर्देश इस प्रकार हैं।
१. बाह्य तप - जो तप बाहर में दिखलाई देता है या जिस में शरीर तथा इन्द्रियों का निग्रह होता है, वह बाह्य तप है, इस के छह भेद हैं। १- अनशन
४- रस परित्याग २- अवमोदरिका ५- कायक्लेश ३- भिक्षाचर्या ६- प्रतिसंलीनता
२. आभ्यन्तर तप - जिस तप में अन्तःकरण के व्यापारों की प्रधानता होती है। वह आभ्यन्तर तप है। इस के छह प्रकार हैं।
१. प्रायश्चित २. विनय ३. वैयावृत्य ४. स्वाध्याय ५. ध्यान
६. व्युत्सर्ग यह जो वर्गीकरण है, वह तप की प्रक्रिया को समझाने के लिये है। बाह्य तप से, तप का प्रारम्भ होता है और उस की पूर्णता आभ्यन्तर तप में होती है। ये दोनों तप एक दूसरे के पूरक हैं।
ध्यान = तप के बारह भेदों में - “ध्यान" ग्यारहवाँ प्रकार है और आभ्यन्तर तप में ध्यान का पाँचवां स्थान हैं। मन की एकाग्र अवस्था “ध्यान" है। अपने विषय में मन का एकाग्र हो जाना "ध्यान" है। चित्त को किसी भी विषय में एकाग्र करना, स्थिर कर देना “ध्यान" है । शुभ और पवित्र आलम्बन पर एकाग्र होना "ध्यान" है। इसी सन्दर्भ में एक विचारणीय प्रश्न उपस्थित होता है कि मन का किसी भी विषय में स्थिर होना ही यदि "ध्यान" है तो लोभी मानव का ध्यान तो धनार्जन में लगा रहता है, चोर का ध्यान वस्तु को चुराने में लगा रहता है, क्या वह भी ध्यान है? उक्त प्रश्न का समाधान है कि पापात्मक चिन्तन की एकाग्रता भी ध्यान है। ध्यान दो
१. स्थानांगसूत्र स्थान - ६ सूत्र ६५ २. समवायांग सूत्र, समवाय ६ सूत्र ३१ ३. अभिधान चिन्तामणि कोष ६/४५
४. आवश्यक नियुक्ति - १४५६ ५. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका - १८/११
१७२
ध्यान : स्वरूप और चिन्तन
in Education International
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org