Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
मन्त्रराज पर ध्यान किया जाता है। इस ध्यान में साधक इन्द्रियलोलुपता से मुक्त होकर मन को अधिक विशुद्ध एवं एकाग्र बनाने का प्रयास करता है।
३. रूपस्थ - इस में राग, द्वेष आदि विकारों से रहित, समस्त सद्गुणों से युक्त, सर्वज्ञ तीर्थंकर प्रभु का ध्यान किया जाता है । उनका अवलम्बन लेकर ध्यान का अभ्यास किया जाता है ।
४. रूपातीत - इस का अर्थ है रूप-रंग से अतीत, निरंजन - निराकार ज्ञानमय आनन्द-स्वरूप का स्मरण करना । १८ इस ध्यान में ध्याता और ध्येय में कोई अन्तर नहीं रहता है ।
इन चारों धर्मध्यान के प्रकारों में क्रमशः शरीर, अक्षर, सर्वज्ञ व निरंजन सिद्ध का चिन्तन किया जाता से सूक्ष्म की ओर बढ़ा जाता है ।
है | स्थूल
. धर्मध्यान के चार लक्षण हैं, उनका स्वरूप इस प्रकार हैं -
१. आज्ञारुचि - जिम आज्ञा के चिन्तन मनन में रुचि, श्रद्धा होना
२. निसर्ग रुचि - धर्म - कार्यों के करने में स्वाभाविक रुचि होना ।
३. सूत्र रूचि - आगमों के पठन-पाठन में रुचि होना । ४. अवगाढ़रुचि - द्वादशांगी का गम्भीर ज्ञान प्राप्त करने में प्रगाढ़ रुचि होना ।
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धर्म ध्यान के चार आलम्बन हैं, इनका स्वरूप इस प्रकार हैं
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१. वाचना
आगम सूत्र का पठन पाठन करना । २. प्रतिपृच्छना - शंका निवारणार्थ गुरुजनों से पूछना । ३. परिवर्तना पठित सूत्रों का पुनरावर्तन करना । अर्थ का चिन्तन करना ।
४.
अनुप्रेक्षा
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धर्म ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं, उन का स्वरूप इस प्रकार है ।
१. एकत्वानुप्रेक्षा - जीव के सदा अकेले परिभ्रमण और सुख दुःख भोगने का चिन्तन करना ।
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२. अनित्यानुप्रेक्षा- सांसारिक वस्तुओं की अनित्यता का चिन्तन करना ।
३. अशरणानुप्रेक्षा - जीव को कोई दूसरा धन, परिवार आदि शरणभूत नहीं, ऐसा चिन्तन करना ।
४. संसारानुप्रेक्षा - चतुर्गति रूप संसार की दशा का चिन्तन
करना ।
धर्म ध्यान, सभी प्राणी नहीं कर सकते । इस ध्यान से मन में स्थैर्य व पवित्रता आ जाती है । प्रस्तुत ध्यान शुक्ल ध्यान की भूमिका का निर्माण करता है ।
४. शुक्ल ध्यान - प्रस्तुत ध्यान ध्यान की परम उज्वल अवस्था है। मन की आत्यन्तिक स्थिरता और योग का निरोध शुक्ल ध्यान है। शुक्लध्यानी देहातीत स्थिति में रहता है। शुक्लध्यान के चार भेद हैं, उन का स्वरूप इस प्रकार है ।
१. पृथक्त्ववितर्क सविचार पृथक्त्व का अर्थ है - भेद । वितर्क का तात्पर्य है - श्रुत। प्रस्तुत ध्यान में द्रव्य, गुण और पर्याय पर चिन्तन करते हुए द्रव्य से पर्याय पर और पर्याय से द्रव्य पर चिन्तन किया जाता है । इस में भेद प्रधान चिन्तन होता है ।
२. एकत्त्व वितर्क अविचार - पूर्वगत श्रुत का आधार लेकर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व अर्थात् अभेद रूप से किसी एक पदार्थ या पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना एकत्व वितर्क अविचार शुक्ल ध्यान कहलाता है ।
३. सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति - यह ध्यान बहुत ही सूक्ष्म क्रिया पर चलता है । इस ध्यान में अवस्थित होने पर योगी पुनः ध्यान से विचलित नहीं होता। इस कारण इस ध्यान को सूक्ष्म क्रिया- अप्रतिपाति कहा है ।
ध्यान : स्वरूप और चिन्तन
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