Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
View full book text
________________
जैन संस्कृति का आलोक
स्वरूप इस प्रकार हैं - १. आज्ञा विचय - जिन आज्ञा रूप प्रवचन के चिन्तन में
संलग्न रहना। २. अपाय विचय - संसार - पतन के कारणों का विचार
करते हुए उन से बचने का उपाय करना । ३. विपाक विचय - कर्मों के फल का विचार करना। ४. संस्थान विचय - जन्म-मृत्यु के आधार भूत पुरुषाकार
लोक के स्वरूप का चिन्तन करना। यहाँ “विचय” शब्द का अर्थ -चिन्तन है। ध्येय के विषय में तीन बातें मुख्य हैं। वे इस प्रकार
१. एक, परावलम्बन - जिस में दूसरी वस्तुओं का अवलम्बन लेकर मन को स्थिर करने का प्रयास किया जाता है। जब एक पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित हो जाती है तो मन स्थिर हो जाता है।
२. दूसरा प्रकार स्वरुपालम्बन है। इस में बाहर से दृष्टि हटा कर नेत्रों को बन्द कर विविध प्रकार की कल्पनाओ से यह ध्यान किया जाता है।
३. तीसरा प्रकार है - निरावलम्बन। इस में किसी भी प्रकार का कोई आलम्बन नहीं होता। मन विचार, विकार और विकल्पों से शून्य होता है। इस में निरंजन, निराकार सिद्ध-स्वरूप का ध्यान किया जाता है। और
आत्मा स्वयं कर्म-मल से मुक्त होने का अभ्यास करता है। इस ध्यान में साधक यह सम्यक्रुपेण समझ लेता है कि मैं आत्मा हूँ, इन्द्रियाँ और मन अलग हैं। ध्यान-साधक स्थूल
से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। रूप से अरूप की ओर बढ़ने के लिये अत्यधिक अभ्यास की आवश्यकता है। रूपातीत ध्यान जब सिद्ध हो जाता है, तब भेदरेखा समाप्त हो जाती है। ध्याता, ध्यान और ध्येय ये तीनों एकाकार हो जाते हैं। ध्येय के चार भेद हैं । १५ उन का स्वरूप इस प्रकार है
१. पिण्डस्थ - इस का अर्थ है - शरीर के विभिन्न भागों पर मन को केन्द्रित करना। पिण्डस्थ ध्यान पिण्ड से सम्बन्धित है। इस में पांच धारणाएँ होती हैं,१६ उन के नाम ये हैं -
१. पार्थिवी। ३. मारुती। २. आग्नेयी। ४. वारुणी।
५. तत्त्ववती। इन पांच धारणाओं के माध्यम से साधक उत्तरोत्तर आत्म-केन्द्र में ध्यानस्थ होता है। चतुर्विध धारणाओं से युक्त पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने से मन स्थिर होता है जिस से शरीर और कर्म के सम्बन्ध को भिन्न रूप से देखा जाता है। कर्म नष्ट कर आत्मा के ज्योतिर्मय स्वरूप . का चिन्तन इस में होता है।
२. पदस्थ - अपनी रुचि के अनुसार मन्त्राक्षर पदों का अवलम्बन लेकर किया जाने वाला ध्यान है। इस ध्यान में मुख्य रूप से शब्द आलम्बन होता है। अक्षर पर ध्यान करने से इसे वर्णमात्रिक ध्यान भी कहते है। इस ध्यान में नाभिकमल, हृदयकमल और मुख कमल की कमनीय कल्पना की जाती है। मन्त्रों और वर्गों में श्रेष्ठ ध्यान “अर्हन्” का माना गया है। जो रेफ से युक्त कला व बिन्दु से आक्रान्त अनाहत सहित मन्त्रराज' है। इस
१५(क) योग शास्त्र ७/८। (ख) योगसार - ६८ (ग) ज्ञानार्णव - ३१ सर्ग, ३७ सर्ग, ४१ सर्ग । १६ योगशास्त्र ७/६ । ७/१० ३५ १७ ज्ञानार्णव ३५ - १,२।
१८ ज्ञानार्णव ३५-७-८। १६ (क) ज्ञानार्णव ३६-१६ । (ख) योगशास्त्र १०/८। २० (क) भगवतीसूत्र २५/७।। (ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/४१ ।। (ग) स्थानांगसूत्र ४/१।।
| ध्यान : स्वरूप और चिन्तन
१७५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org