Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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जैन संस्कृति का आलोक
प्रकार का है। प्रथम शुभ ध्यान है और द्वितीय 'अशुभ ध्यान' है। शुभ ध्यान मोक्ष-प्राप्ति का हेतु है और अशुभ ध्यान संसार वृद्धि का प्रमुख कारण है। शुभ ध्यान ऊर्ध्वमुखी होता है तो अशुभ ध्यान अधोमुखी होता है। मन की अन्तर्लीनता, अन्तर्मुखता शुभ ध्यान है। मन तो स्वभावतः चंचल है। वह लम्बे समय तक एक वस्तु पर स्थिर नहीं रह सकता। उसे किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित करना अत्यन्त ही कठिन है। वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक एकाग्र नहीं रह सकता। यह ध्रुव सत्य है कि ध्यान साधना के लिये परिग्रह-त्याग, कषाय-निग्रह, व्रत-धारण और इन्द्रिय-विजय करना नितान्त आवश्यक है, अनिवार्य
है। प्रस्तुत ध्यान मनोज्ञ वस्तु के वियोग एवं अमनोज्ञ वस्तु के संयोग से होता है। परिणामतः अवांछनीय पदार्थ की उपलब्धि तथा अवांछनीय वस्तु की अनुपलब्धि होने पर जीव दुःखी होता है। इस ध्यान के चार प्रकार हैं। उन का स्वरूप इस प्रकार है। १. अमनोज्ञ वस्तुओं की प्राप्ति होने पर उनके वियोग
की चिन्ता करना! २. मनोज्ञ - वस्तुओं की प्राप्ति होने पर उनके अवियोग
की चिन्ता करना। ३. आतंक - घातक रोग होने पर उसके दूर करने का
चिन्तन करना। ४. परिसेवित या प्रीतिकारक काम भोगों का संयोग होने
पर उस का वियोग न हो, ऐसा चिन्तन करना ।
अमनोज्ञ, अप्रिय और अनिष्ट ये तीनों एकार्थक शब्द हैं। इसी प्रकार इष्ट, प्रिय और मनोज्ञ ये तीनों एकार्थकवाची हैं। अनिष्ट वस्तु का संयोग अथवा इष्ट वस्तु का वियोग होने पर जो दुःख, शोक, संताप, आक्रन्दन और परिवेदन करता है, वह सब आर्तध्यान कहलाता
ध्यान के भेदों और उपभेदों के विषय में विशद एवं विस्तृत रूप से विचारणा हुई है। ध्यान के मुख्य भेद चार हैं। उन के नाम इस प्रकार हैं -
१. आर्त्तध्यान ३. धर्म ध्यान २. रौद्र ध्यान ४. शुक्ल ध्यान
इन चार भेदों में, प्रारम्भ के दो ध्यान, अप्रशस्त हैं, अशुभ हैं अतएव ये दोनों प्रकार तप की कोटि में नहीं । आते हैं। अन्तिम के दो ध्यान प्रशस्त हैं, शुभ हैं और वे तप की सीमा में समाविष्ट हैं। इन चारों ध्यानों का स्वरूप एवं सविस्तृत विचारणा, इस प्रकार की जा रही है।
१. आर्त्तध्यान - आर्ति नाम दुःख अथवा पीड़ा का है। उस में से जो उत्पन्न हो, वह आर्त है अर्थात् दुःख के निमित्त से या दुःख में होने वाला ध्यान आर्तध्यान"
आर्तध्यान के चार लक्षण हैं, वे इस प्रकार हैं। १. क्रन्दनता - उच्च स्वर से बोलते हुए रोना । २. शोचनता - दीनता प्रगट करते हुए शोक करना । ३. तेपनता - बार-बार अश्रुपात करना। ४. परिदेवनता - विलाप करना।
६. (क) ध्यान शतक - ३ (ख) तत्वार्थ सूत्र -६/२८ (ग) योग प्रदीप - १५/३३ ७. (क) स्थानांग सूत्र - स्थान ४, उद्दे. १, सूत्र २४ (ख) समवायांग सूत्र, समवाय ४ सूत्र २
(ग) भगवती सूत्र - शतक २५, उद्दे. ७ सूत्र २८२ (घ) औपपातिक सूत्र, सूत्र ३० . (ङ) आवश्यक नियुक्ति - १४५८ (८) क. आवश्यक अध्ययन -४ (ख) भगवती सूत्र - शतक २५ उद्दे ७. सू. २३
ध्यान : स्वरूप और चिन्तन
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