Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai

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Page 594
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि ही चारित्र मानने वाले आग्रहशील साम्प्रदायिक मनोवृत्ति परनिन्दा-माया : जन्म-मरण के कारण के व्यक्तियों की दृष्टि में बीच के२२ तीर्थंकर तथा उनके काश! ये लोग शान्तचित से विचार करें, महावीर के अनुगामी साधु-साध्वी शिथिलाचारी थे, या वे तीर्थंकर उपासक होने का दावा करने वाले ये व्यक्ति अपनी क्या शिथिलाचार के उपदेशक या पोषक थे? भाषासमिति का विचार करते और अपने जीवन के आन्तरिक गणधर गौतम स्वामी से भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य पृष्ठों को पढ़ते । कठोर क्रियाकाण्ड एवं बाह्य नियमोपनियमों केशीस्वामी मिले, तब भी गणधर गौतम ने उन्हें तथा के पालन का अहंकार एवं दम्भ करते हैं, दूसरों को नीचा दिखाने एवं तिरस्कृत करने के लिए बाह्यक्रियाओं का उनके साधुओं को शिथिलाचारी नहीं कहा। इससे यह प्रायः प्रदर्शन करते हैं उनकी कषायें तथा वासनाएँ उपशान्त स्पष्ट है कि केवल उक्त बाह्याचार, क्रियाकाण्ड तथा नहीं, प्रत्युत अधिक उद्दीप्त होती हैं। ऐसे प्रदर्शन में प्रायः कतिपय स्थूल नियमोपनियमों के आधार पर से ही चारित्र दम्भ, दिखावा और माया का सेवन होता है। आचार्य को शिथिल या उत्कृष्ट मानना या इसी आधार पर किसी जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ऐसे मायावी जीवन के लिए साधु को उत्कृष्ट या हीन मानना साम्प्रदायिक उन्माद के सचोट बात कही है-"जो मायावी है, सत्पुरुषों की निन्दा सिवाय और कुछ नहीं है। ये बाह्य आचार या क्रियाकाण्ड करता है वह अपने लिए किल्विषक भावना (पाप योनि अथवा परम्पराएँ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार बदलती की स्थिति) पैदा करता है । ३८ मायापूर्वक की गई क्रियाएँ रही हैं और भविष्य में भी बदलेंगी। ३६ आत्म कल्याण में सहयोगी नहीं बन पातीं। यदि आभ्यन्तर जीवन में ग्रान्थियाँ हैं तो उसका बाह्य त्याग यथार्थ में समभावी साधक तथापि परपरिवाद सम्यक त्याग नहीं है। आगमकार स्पष्ट विधान करते आत्मधर्म की साधना का मूल चारित्र (भावचारित्र) हैं – “यदि कोई व्यक्ति नग्न रहता है, मास-मास भर है। इसमें महत्व सिर्फ क्रियाकाण्डों या वाह्याचार का नहीं, अनशन करके शरीर को कृश कर डालता है, किंतु अंतर स्वात्मभाव की परिणति का है। चारित्र समभाव या वीतराग। में माया एवं दम्भ रखता है, वह जन्म-मरण के अनन्त भाव में है। जो मोहकर्म के क्षय या क्षयोपशम से होता चक्र में भटकता रहता है। २६ है। अतः बाह्य विधि-विधानों से चारित्र को, आत्म संयम भगवान् महावीर ने भी कहा है - “केवल मस्तक को नापना ठीक नहीं है। कुछ महाशय तो अपने माने हुए मंडाने से या बाह्य वेष से अथवा क्रियाकाण्डों से कोई परम्परागत बाह्य आचार-विचार से भिन्न समभावपोषक श्रमण नहीं हो जाता। समतायोग को अपनाने जीवन में प्रणाली को देखते हैं तो तुरंत ही आगबबूला हो उठते हैं आनेवाली हर परिस्थिति में सम रहने वाला, समभाव वे अपने मुख से अथवा लेखनी से उन शान्त विरक्त । रखने वाला ही श्रमण होता है।"४० स्थानांगसूत्र के समभावी साधकों के लिए भ्रष्टाचारी, भेषधारी पतित या अनुसार-शिरोमुंडन के साथ-साथ चार कषायों तथा धर्मभ्रष्ट, सम्यक्त्वभ्रष्ट आदि अनर्गल अपशब्दों और गालियों पंचेन्द्रियविषयों का मुण्डन शमन - सन्तुलन - सममन का प्रयोग करते रहते हैं। सूत्रकृतांग सूत्र में पर-परिभव । रखने से वास्तविक मुण्डन होता है। ४१ भाव-मुण्डन का एवं परनिंदक को संसार में परिभ्रमण का कारण बताया अभिप्राय है, प्रत्येक कार्य(कर्म) करते हुए किसी प्रकार की आसक्ति, फलाकांक्षा, विचिकित्सा आदि का त्याग १६० धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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