Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai

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Page 596
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि ३४. (क) दुविहे सामाइए पण्णत्ते - आगार सामाइए अणगार सामाइए। - स्थानांग ठाणा - २ (ख) समस्स आयाः लाभः सामायिकम् - 'करेमि भंते सामाइयं' - आवश्यक ३५. तत्त्वार्थसूत्र, मूलाचार ३६. (क) मूर्छा परिग्रहः - तत्त्वार्थसूत्र (ख) मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। दशवै. ३७. जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तइ महं। अद इंखिणियाउ पाविया, इइ संखाय मुणीण मज्जए।।" - सूत्रकृतांग १/२/२/२ ३८.जइविय णगिणे किसे चरे, जइ वि भुंजिय मास मंत सो। ३६. जे इह मायाइ मिज्जइ आगंता गब्भाय णंतसो।। - सूत्रकृतांग १/२/१/८६ ४०. (क) न वि मुंडिएण समणो। (ख) समयाए समणो होइ....।" ४१. स्थानांग सूत्र ठा.-१० ४२. (क) सिद्धयसिद्दयोः समं भूत्वा, समत्वं योग उच्यते। योगः कर्मसु कौशलम्। - भगवद्गीता । S विद्ववर्य श्री विनोद मुनिजी ने डूंगरपुर (राजस्थान) के एक सम्भ्रान्त ओसवाल परिवार में जन्म लिया। आपके हृदय में लघु वय में ही वैराग्य की भावना जगी और आपने आचार्य प्रवर श्री गणेशीलालजी महाराज के श्रीचरणों में श्रमण दीक्षा ग्रहण की। आपने अपने लघु भ्राता श्री सुमेर मुनिजी महाराज के सहयात्री बन कर अनेकों प्रदेशों की यात्रा की और धर्म का प्रचार किया। आपने प्राकृत, हिन्दी व संस्कृत आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। आप एक श्रेष्ठ प्रवक्ता हैं। वर्तमान में आप अपने पारम्परिक गुरुजन श्री मगन मुनिजी एवं पण्डितरत्न श्री नेमीचन्दजी महाराज के साथ अहमदनगर (महाराष्ट्र) में निवसित हैं। -संपादक नारी जीवन के मूल्य को, उसके अस्तित्व को समझकर, स्वीकार करके ही भगवान् महावीर ने अपने धर्मसंघ में / तीर्थ में पुरुष के साथ ही नारी को स्थान दिया था। उन्होंने किसी प्रकार कोई हिचक/ संकोच नहीं किया था, जब कि समकालीन तथागत बुद्ध ने अपने संघ में नारी को सम्मिलित करने में संकोच किया था। शिष्य भिक्षु आनन्द के निवेदन को नकार दिया था। अन्ततः इस आग्रह को स्वीकार करना पड़ा किन्तु अन्तर में उपेक्षा ही थी। मर्यादाएं बंधन कब बनती हैं, जब मन न माने। जब मन ठीक हो तो ये बन्धन नहीं कहलाती। फिर मर्यादा, मर्यादा रहती है। लक्ष्मण रेखा की तरह रक्षात्मक बन जाती है। इनके पीछे भाव जुड़ा रहता है मन का कि “ये जो सीमा रेखाएं हैं," मुझे मेरी आत्मा को मेरी जीवन साधना के क्षेत्र में बनाये रखने के लिए हैं। नहीं तो, कभी भी मैं उच्छृखल उद्दण्ड बन सकता हूँ, कभी भी लड़खड़ाकर बाहर गिर सकता हूँ। उसको थामने के लिए ये सीमा रेखाएं हैं। - सुमन वचनामृत १६२ धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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