Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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जैन संस्कृति का आलोक
हैं, भूख नहीं होने पर नहीं खाते हैं। इस प्रकार प्रकृति का है। टेलिवीजन के पर्दे पर जो चल-चित्र दिखाये जाते हैं संतुलन बना रहता है। परन्तु मनुष्य भूखा होने पर भी उनमें प्रदर्शित अभिनेता-अभिनेत्री का नृत्य, गान, हावचाहे तो नहीं खाये और भूख न होने पर भी स्वाद के वश भाव वेशभूषा, व अन्य भोग-सामग्री से दर्शकों के मन में भोजन कर लेता है। अर्थात् मनुष्य का जीवन प्रकृति के कामोद्दीपन तो होता ही है साथ ही मन में अगणित भोग आधीन नहीं है। वह प्रकृति से अपने को ऊपर उठाने में भोगने की कामनाएँ/वासनाएँ उत्पन्न हो जाती है, उन सब स्वतन्त्र है। यही मानव जीवन की विशेषता भी है। की पूर्ति होना संभव नहीं है। कामनाओं/वासनाओं की मानव इस स्वतन्त्रता का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों पूर्ति न होने से तनाव, हीनभाव, दबाव, और द्वन्द्व, कर सकता है। सदुपयोग है - प्रकृति का यथा संभव कम कुंठाएँ तथा मानसिक ग्रंथियों का निर्माण हो जाता है। या उतना ही उपयोग करना जितना जीवन के लिये जिससे व्यक्ति मानसिक रोगी होकर जीवन पर्यन्त दुख अत्यावश्यक है। इससे प्रकृति की देन का / वस्तुओं का भोगता है साथ ही रक्तचाप, हृदय, केंसर, अल्सर, मधुमेह व्यर्थ व्यय नहीं होता है और जिससे प्रकृति का संतुलन जैसे शारीरिक रोग का शिकार भी हो जाता है। जैन धर्म बना रहता है तथा प्रकृति के उत्पादन में वृद्धि होती है। का मानना है कि भोग स्वयं आत्मिक एवं मानसिक रोग है भारतवर्ष की संस्कृति में अन्न को देवता माना गया है। और इसके फलस्वरूप शारीरिक रोगों की उत्पति होती है। अन्न के एक दाने को भी व्यर्थ नष्ट करने को घोर पाप या फिर शारीरिक रोगों की चिकित्सा के लिये एन्टीवायोटिक अपराध माना जाता रहा है। पेड़ के एक फूल, पत्ते व दवाइयाँ ली जाती हैं जिससे लाभ तो तत्काल मिलता है फल को व्यर्थ तोड़ना अनुचित समझा जाता रहा है। पेड़- परन्त जीवन-शक्ति नष्ट हो जाती है फलतः आयु घटकर पौधों को क्षति पहुँचाना तो दूर रहा उलटा उन्हें पूजा अकाल में ही काल के गाल में समा जाते हैं, वर्तमान में जाता है - खाद और जल देकर उनका संवर्धन व पोषण
उत्पन्न समस्त समस्याओं का मूल भोगवादी संस्कृति ही है। .. किया जाता है। यही कारण है कि आज से केवल एक सौ वर्ष पूर्व भारत में घने जंगल थे। जब से उपभोक्तावादी ८. अनर्थ दण्ड विरमण संस्कृति का पश्चिम के देशों से भारत में आगमन हुआ,
अनर्थ शब्द, अन् उपसर्ग पूर्वक दंड शब्द से बना प्रचार-प्रसार हुआ इसके पश्चात् सारे प्रदूषण पैदा हो गये,
है। अन् उपसर्ग के अनेक अर्थ फलित होते हैं उनमें वनों का विनाश हो गया। अगणित वनस्पतियों तथा
मुख्य हैं अभाव, विलोम । अर्थ कहते हैं – मतलब को। पशु-पक्षियों की जातियों का अस्तित्व ही मिट गया। जहाँ
अतः अनर्थ शब्द का अभाव में अभिप्राय है बिना अर्थ, पहले सिंह भ्रमण करते थे आज वहां खरगोश भी नहीं
व्यर्थ, हित शून्य और विलोम रूप में अभिप्राय है - हानिरहे।
प्रद। अतः जो कार्य अपने लिये हितकर न हो और वर्तमान में विज्ञान के विकास के साथ भोग सामग्री दूसरों के लिये भी हानिकारक हो उसे अनर्थ दण्ड कहते अत्यधिक बढ़ गई है तथा बढ़ती जा रही है, जिसे हैं। जैसे मनोरंजन के लिए ऊँटों की पीठ पर बच्चों को फलस्वरूप रोग बढ़ गये हैं और बढ़ते जा रहे हैं। बांधकर ऊँटों को दौड़ाना जिससे बच्चे चिल्लाते हैं तथा उदाहरणार्थ टेलिवीजन को ही लें, टेलिवीजन के समीप गिरकर मर जाते हैं, मुर्गी को व सांडों को परस्पर में बैठने से बच्चों में रक्त कैंसर जैसा असाध्य रोग बहुत लड़ाना आदि। आजकल सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के लिये अधिक बढ़ गये हैं। आँखों की दृष्टि तो कमजोर होती ही अनेक पशु-पक्षियों की निर्मम हत्याएँ की जाती हैं, इस
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