Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
View full book text
________________
साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
श्री सुमनमुनिजी म. से एक लघु साक्षात्कार
मेटुपालयम में श्री सुमनकुमार मुनिजी का ४७ वां दीक्षा-दिवस मनाया गया। “मंथन” मासिक पत्र कोयम्बत्तूर (तमिलनाडु) के सम्पादक गौतम कोठारी द्वारा उस अवसर पर १-११-६७ को लिये गये साक्षात्कार का एक अंश । ० दीक्षा दिवस के इस महान् अवसर पर आपको कैसा
लग रहा है?
मेरे लिये यह दिवस बस एक स्मृति दिवस भर है। इस दिवस पर स्मृतियाँ मानस पटल पर अंकित हो जाती है। जब भी पिछले ४७ वर्षों के दीक्षाकाल पर दृष्टिपात करता हूँ तो जीवन में धर्म के प्रति अनुराग और भी बढ़ जाता है। साधु बनने की आपको प्रेरणा कैसे हुई? पारिवारिक कारणों से, पिता, माता एवं भाई की असामयिक मृत्यु हो गयी। उससे मन उद्विग्न रहने लगा। जाति से जैन न रहते हुए भी जैन संतों के सम्पर्क में आने से वैराग्य भावना जागी। इस प्रकार
जैन साधु बन गया। O आपने अब तक संपूर्ण भारत की पद यात्रा की है।
विभिन्नता में एकता के प्रतीक भारत की सामान्य जनता के बारे में आपके क्या विचार हैं? । सामान्य जनता में भाईचारा और सौहार्द की भावना है। मानव के प्रति सहानुभूति की भावना है। पर दुर्भाग्य वश राजनेता वर्ग-भेद की स्थिति पैदा कर
देते हैं। इससे जातीय भावना उग्र हो जाती है। 0 जहाँ आपके अनूठे व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता
आपकी स्पष्टवादिता है वहीं आपकी पैनी दृष्टि और आपके सुलझे विचार आपको विशिष्ट बना देते हैं। क्या तथाकथित परम्परागत अनुदारवादियों ने आपके
इस रूप को स्वीकार किया? हाँ, उन्हें मेरी स्पष्टवादिता रास नहीं आयी। उनकी इस वृत्ति से वैयक्तिक जीवन को भले ही लाभ पहुँचा हो सामाजिक हानि अवश्य हुई। जब कभी किसी कार्य को करने के लिये आगे आये तो हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया। पूज्य गुरुदेव का वरदहस्त मुझ पर रहा। उससे मुझे
हमेशा सम्बल मिला। ० कुछ साधु संतों की एक दीर्घ काल के बाद अपना
आश्रम बनाने की चाह रहती है। ये आश्रम उनकी साधना के केन्द्र होते हैं। इस सन्दर्भ में आपकी क्या सम्मति है? मेरी समझ में किसी भी साधु को चल अथवा अचल संपति का मोह नहीं रखना चाहिए। साधु का कोई वैयक्तिक जीवन नहीं होता। वह समाज और धर्म से जुड़ा हुआ होता है। उसका अपना कोई अस्तित्व
नहीं है। 0 मेटुपालयम चातुर्मास की क्या उपलब्धि रही?
उनकी धर्मानुरागिता तथा साधु-संतों की सेवा की भावना से मैं बहुत ही प्रभावित हुआ हूँ। मेटुपालयम चातुर्मास में मुझे साधना का अवसर मिला, इससे आत्म संतोष हुआ। यहाँ बालकों तथा युवानों का
उत्साह देखते ही बनता है। 0 दक्षिण का जैन समाज आपको कैसा लगा?
यहाँ मैंने समाज को संगठित रूप में देखा। हाँ यहाँ मैंने रूढ़िवादिता और दिखावा भी देखा। सामाजिक भावना का अभाव भी देखा। फिर भी दक्षिण का
एक लघु साक्षात्कार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org