Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
अहं पर चोट करो | किसी को नहीं तोड़ना । अपने अहं को तोड़ो। वह क्षण दूर नहीं जब आप परम को उपलब्ध हो जाएंगे।
आसक्ति टूटे
ये आसक्तियाँ टूटें तब जाकर हम मनुष्यता की श्रेणी में आएंगे। आसक्तियां हमारे भीतर भरी पड़ी हैं । ये हमें मनुष्य नहीं बनने देती हैं। जब तक हम मनुष्य नहीं बन पाएंगे तब तक श्रावक और साधु भी नहीं बन पाएंगे। क्योंकि श्रावकत्व और साधुत्व का विकास मानवता के धरातल पर ही होता है ।
जैन धर्म, जिन धर्म अत्युत्तम धर्म है । यह आदमी की आसक्ति को तोड़ता है, उसे जन से जिन और शव से शिव बनाने का मूलमंत्र देता है । •••
स्वदर्शन
जब आप अपना स्वभाव नहीं छोड़ते तो दूसरा अपना स्वभाव क्यों छोड़ेगा? हम चाहते हैं दूसरा तो अपना स्वभाव बदल ले लेकिन हम अपना स्वभाव न बदलें । यह कैसे हो सकता है ?
लेकिन जब हम 'स्व' में आ जाएंगे तो हमारे भीतर स्वयं को देखने की प्रवृत्ति जागेगी । 'पर' हमारी दृष्टि से अदृश्य हो जाएंगे । और स्वयं को देखने वाला, 'स्व' भाव में रमण करने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता है । •••
विशेष दिनों के आयोजन आवश्यक हैं
हम महापुरुषों की जन्म जयन्तियां, उनकी पुण्य तिथियां मनाते हैं, उनके तप त्यागादि के विशेष दिन मनाते हैं । कुछ लोग इन्हें आडम्बर मानते हैं । मृतपूजा मानते हैं ।
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पर मैं ऐसा नहीं मानता हूँ। मैं उन आयोजनों को अनिवार्य मानता हूँ जो महापुरुषों से जुड़े हैं। ऐसे आयोजनों के माध्यम से ही हम अपने पूर्वजों से परिचित हो पाते हैं । हम जान पाते हैं कि हमारे पूर्वजों ने स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज के लिए, जाति के लिए, धर्म के लिए कितना बड़ा बलिदान दिया । बलिदान; बलिदान के भाव को पुष्ट बनाता है। स्वार्थ; स्वार्थ को विस्तृत करता है । अपने पूर्वजों की बलिदान - गाथा सुनकर हमारी संतानों के संस्कार निर्मित होंगे। उनके प्रति उनके हृदयों में श्रद्धा पैदा होगी और वह श्रद्धा ही उनके जीवन का निर्माण करेगी। अतः विशेष दिनों के आयोजन बहुत आवश्यक हैं । •••
प्रायश्चित
विवेक के अभाव में नियम, व्रत, पच्चक्खाण आदि का सम्यक् पालन नहीं हो पाएगा। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार आदि दोष लगते रहेंगे ।
दोष लगे तो उसे सावधान किया जाए, वह प्रायश्चित ले लेगा। लेकिन प्रायश्चित ले लेने के बाद भी उसका शुद्धिकरण नहीं हो सकेगा यदि वह भूल को भूल मानने
लिए तैयार न हो । भूल को भूल मान लेना मानवीय गुण है । कहावत है- भूल आदमी से होती है देवता से नहीं । पशु-पक्षी भी भूल करते हैं क्योंकि उनके पास बोध नहीं है। आदमी के पास बोध / ज्ञान है फिर भी वह भूल कर देता है। इसका कारण स्पष्ट है कि जन्म-जन्मान्तरों के प्रमाद से उसकी आत्मा घिरी है । प्रमाद ही कर्म है । प्रमाद
भूल का कारण है । इसलिए मैंने कहा - भूल हो जाना सहज बात है। जब तक प्रमाद और अज्ञान पूर्णतः समाप्त नहीं होते तब तक भूलें होती ही रहेंगी ।
इसीलिए भगवान ने हमारे लिए प्रतिक्रमण का विधान किया । प्रायश्चित का विधान किया । प्रायश्चित का यही
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प्रवचन - पीयूष कण
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