Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai

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Page 540
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि इसी ग्रंथ में आगे कहा है We speak of hate and hatred yet hatred is also the general name of all sentiments in the structure of which the affective dispositions of angers and fear are incorporated (page 436 ) जिस प्रकार धर्म और अध्यात्म में क्रोध के दमन और हनन पर विचार किया गया है उसी प्रकार मनोविज्ञान और समाज शास्त्रियों ने भी । इरिक बर्न कहता है - Man must apply destructive energy to certain goals spiritual progress. Fear and anger must he inwardly directed. पेज के अनुसार आत्म निरीक्षण करके क्रोध का दमन करना उचित है । इसे ही क्रोध पर क्रोध करना कहा है। इसके साथ ही विवेक और औचित्य से क्रोध के कारणों का विश्लेषण करने से क्रोध पर नियंत्रण किया जा सकता है । सचेतन, सक्रियता और सर्जनात्मक वृत्ति भी क्रोध समाप्त करती है । कलात्मक सृजन और स्वाध्याय भी क्रोध को शान्त करते हैं । सामाजिक व्यवहार और आचरण की शुद्धता एवं आत्म विश्वास के साथ मैत्री भाव भी क्रोध के उपचार हैं । मेकगुडल के अनुसार -Tender feeling is purely self-seeking as any other pleasure." "From the emotions and the impulse to cherish and protect-spring generosity gratitude, love and pity benevolence and altrensic conducting every kind. ( वही पृ. ६१ ) - true मनोशास्त्रियों की सम्मति में क्रोध व हिंसा भावना की जड़ें मनुष्य के आदिम मस्तिष्क में विद्यमान रहती है । डॉ. एम. आर. डेलगाडे ने यह प्रमाणित कर दिया है। उन्होंने मस्तिष्क के विशेष बिन्दु को उत्तेजित कर शान्त मनःस्थिति को भी उग्र बना दिया। ये प्रयोग उन्होंने बन्दरों व सांडों पर किए। डॉ. मार्क ने जानवरों से भिन्न मानवीय मस्तिष्क १०६ Jain Education International के उस आदिम हिस्से पर प्रकाश डाला है। जिसके कारण वह अपनी भावनाओं, संवेदनाओं और स्थितियों पर नियंत्रण खो देता है । इन प्रयोगों के अतिरिक्त अनेक मनोविश्लेषणात्मक पद्धतियों द्वारा क्रोध के मनोविकार का निरूपण किया है। कुछेक उल्लेख पर्याप्त होंगे। डॉ. जेम्स रोलेण्ड एनगिल ने शैशव काल से ही क्रोध की उत्पत्ति के कारणों का संधान किया है - जिनमें चिड़चिड़ाहट, चिढ़ाना, मनोमालिन्य, अपमान आदि मुख्य हैं, ये ही वे हेतु हैं, जो मानवीय मस्तिष्क को असंतुलित करते हैं । वस्तुतः युद्धलिप्सा भी एक सामूहिक क्रोधाभिव्यक्ति है, व्यक्ति या समाज अथवा राष्ट्र अपनी अस्मिता के खण्डित होने पर युद्ध, धर्मान्धता, स्वार्थ, अधिकार व सत्ता की एषणा से युद्धोन्मत्त हो जाते हैं । प्राचीन काल से ही ये उदाहरण इतिहास में उपलब्ध हैं - यूनान के निवासियों ने इब्रानियों को अपना शिकार बनाया, रोम के निवासियों ने ईसाईयों पर पाशविक अत्याचार किए । मध्ययुग की क्रुसेड युद्ध - धर्मान्धता के प्रमाण थे। भारत में चंगेज खां, मोहम्मद गोरी, तैमूर खाँ, नादिरशाह आदि आक्रामकों ने धर्म-विरोध व सत्ता के मद में कत्लेआम किया। आधुनिक युग में हिटलर ने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतारा। यहूदियों का देवता भी प्रतिशोध का देवता है । आज विद्वान् कहते हैं कि कोलम्बस भी अत्यधिक उग्र और क्रोधी था – हिटलर तो उसके समक्ष बौना लगता है । राष्ट्र और समाज की यह उग्रता और आक्रामक प्रवृत्ति सामूहिक होते हुए भी, मूलतः व्यक्तिपरक है । डॉ. लियो मेडो ने इस पर विशेष प्रकाश डाला है । - डॉ. मेडो ने अपने ग्रंथ “क्रोध" (एंगर) में यह बताया है कि मनुष्य का इतिहास एक दृष्टि से क्रोध का इतिहास है। इंजील में यह प्रतदिपादित किया गया है कि मनुष्य की सृष्टि के उपरान्त ही क्रोध की उत्पत्ति हुई । प्रलय में नोहा की कल्प कथा में ईश्वर ने मनुष्य को ही कषाय : क्रोध तत्त्व For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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