Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
मुनिराजों का विहार दक्षिण भारत में हुआ था। उनमें से ८००० साधु गण ने तमिलनाडु में विचरण किया था। उनके विहार से पवित्रित यह भूमि भग्नावशेषों के द्वारा आज भी उनकी पवित्र गाथाओं की याद दिलाती हुई शोभित हो रही है। काश ! जैन धर्म ज्यों का त्यों रहता तो कितना अच्छा होता। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य ।
और परिमित परिग्रह आदि पंचशीलों का कैसा प्रचार रहता ?
भगवान् महावीर के मोक्ष चले जाने के बाद उनके पदानुगामी कुंदकुंद महाराज की तपोभूमि इसी प्रांत में है। उसका नाम 'जोन्नूरमलै' है। वह पवित्र स्थान उनके महत्व की याद दिलाता हुआ शोभायमान हो रहा है। अकलंक बस्ती आह्वान करता हुआ बता रहा है कि आओ और महात्माओं के चरण-चिह्नों से आत्मसंशोधन कर प्रेरणा प्राप्त कर लो ! दक्षिण मथुरा आदि जिलों में जैन धर्मानुयायी मिट चुके हैं। परंतु यहाँ के सुरम्य पर्वतों की विशाल चट्टानों पर उत्कीर्ण जिनेंद्र भगवान् के बिंब और गुफाओं में बनी हुई वस्तिकाएँ तथा चित्रकारी आदि सब के सब अपनी अमर कहानी सुनाती रहती है।
यहाँ सैंकड़ों साधु साध्वियों के निवास, अध्ययनअध्यापन के स्थान आश्रम आदि के चिह्न पाये जाते हैं। सिद्धन्नवासल यानैमलै कलुगुमलै समणर्मलै आदि पहाड़ है। वे दर्शनीय होने के साथ-साथ आत्मतत्त्व के प्रतिबोध । के रूप में माने जा सकते हैं। __वर्तमान समय में यह प्रांत उपेक्षा का पात्र बना हुआ है। कर्नाटक प्रांत भगवान् बाहुबलि के कारण प्रख्यात है। परंतु यह प्रांत विशेष आकर्षणशील वस्त के अभाव होने के कारण इस प्रांत की तरफ लोगों का ध्यान नहीं के बराबर है। परंतु यहाँ की तपोभूमि का अवलोकन करेंगे
तो अध्यात्मतत्त्व से अमरत्व प्राप्त तपोधनों के रजकणों का महत्व अवश्य ध्यान में आ सकता है। जैनत्व की अपेक्षा से देखा जाय तो कोई भी प्रांत उपेक्षणीय नहीं है। सत्य की बात यह है कि त्यागी महात्माओं से धर्म का प्रचार होता है और वह टिका रहता है। सैकड़ों वर्षों से दिगंवर जैन साधुओं का समागम एवं संचार का अभाव होने से जैन धर्म का प्रचार नहीं के बराबर है। परंतु खद्योत के समान टिमटिमाता हुआ जिंदा ही है अर्थात् सर्वथा नष्ट नहीं हुआ है।
यहाँ की जनता सरस एवं भोली-भाली है। धर्म के प्रति अच्छी श्रद्धा है। व्यवसायी होने के नाते अपने धार्मिक कृत्य को पूर्ण रूप से करने में असमर्थ है। यहाँ के जैनी लोग संपन्न नहीं है। धर्म प्रचार के लिए भी धन की बड़ी आवश्यकता पड़ती है। नीति है कि “धनेन विना न लभ्यते क्वापि" अर्थात् धन के अभाव में कोई भी कार्य साधा नहीं जा सकता। यहाँ पर फिर से धर्म प्रचार की बड़ी आवश्यकता है। इस पर उत्तर हिंदुस्तान के संपन्न व्यक्ति अथवा संपन्न संस्था यदि ध्यान देंगे तो सब कुछ हो सकता है। अन्यथा ज्यों का त्यों ही रहेगा।
प्राचीन काल में तमिलनाडु के अंदर जैन धर्म राजाओं के आश्रय से पनपता था। चेर, चोल, पाण्डय और पल्लव नरेशों में कुछ तो जैन धर्मानुयायी थे और कुछ जैन धर्म को आश्रय देने वाले थे। इसका प्रमाण यहाँ के भग्नावशेष, और बड़े बड़े मन्दिर हैं। चारों दिशाओं के प्रवेश द्वार वाले अजैनों के जो भी मन्दिर है, वे सब एक जमाने में जैन मन्दिर थे। वे सब समवशरण की पद्धति से बनाये हुए थे। बाद में जैनों का ह्रास कर ले लिये थे अब भी बहुत से अजैन मन्दिरों में जैनत्व चिह्न पाये जाते है।
१. उन अजैनों के स्तुतिपद्य में जिनंकर (जिनगृह) पुगुन्दु याने प्रवेश कर आता है। इससे जान सकते हैं कि एक जमाने में वह जिन मन्दिर था। २. नागर कोयिल।
तमिलनाडु में जैन धर्म |
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