Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
तथा परिवार, समाज एवं राष्ट्र की चिरस्थायी शान्ति और प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान कर सकती है। परंपरा से विश्वशान्ति के लिए वह महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। नारी मंगलमूर्ति है, वात्सल्यमयी है, दिव्यशक्ति है। उसे वात्सल्य, कोमलता, नम्रता, क्षमा, दया, सेवा आदि गुणों के समुचित विकास का अवसर देना ही उसका पूजन है, उसकी मंगलमयी भावना को साकार होने देना, विश्वशान्ति के महत्वपूर्ण कार्यों में उसे योग्य समझकर नियुक्त करना ही उसका सत्कार-सम्मान है। तभी वह विश्वशान्ति को साकार कर सकती है।
नारी : समग्र व्यक्तित्व का मित्र रूप
हमारे देश में प्राचीनकाल से ही नारी का स्थान गरिमामय रहा है। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' जहां पर नारियों की पूजा और सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं। 'इयं वेदिः भुवनस्य नाभिः' नारी ही संसार का केंद्र है।
री के प्रति अपार आस्था, श्रद्धा और पूज्य भावना अभिव्यक्त की गई है। कवियों ने उनकी तुलना वर्ण एवं गंध के फूलों की महकती मनोहारिनी माला से की हैं, जननी के रूप में वह सर्वाधिक पूज्य एवं सम्माननीय है, बहिन के रूप में वह स्नेह, सौजन्य एवं प्रेरणा की प्रवाहिनी है, पत्नी/भार्या सहधर्मिणी के रूप में वह मानव के समग्र व्यक्तित्व का मित्र रूप में विकास करती है। वह एक ऐसे असीम सागर के समान है, जिसमें चिन्तन के असंख्य मोती विद्यमान हैं।
दिव्य दृष्टिशीला नारी
“पुरुष शस्त्र से काम लेता है तथा स्त्री कौशल से। स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान होती है"
विक्टर ह्यगो ने तो यहाँ तक कहा है -
"Man have sight, woman insight" अर्थात् -- मनुष्य को दृष्टि प्राप्त होती है तो नारी को दिव्यदृष्टि ।
अंत में यही कहा जा सकता है कि अत्याचार, अनाचार, दुराचार, पाखंड आदि को दूर करने में नारी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, क्योंकि उसके व्यवहारिक जीवन में मातृत्व गुण के अतिरिक्त पवित्रता, उदारता, सौम्यता, विनय संपन्नता, अनुशासन, आदर सम्मान की भावना आदि गुणों का संयोग मणिकांचन की तरह होता है।
नारी ने धर्मध्वजा को फहराया है। नारी ने ही नियम, संयम व यश कमाया है। अतः यह बात निर्विवाद है कि “जैन धर्म में नारी का स्थान, नारी का योगदान आदिकाल से रहा है, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी बना रहेगा क्योंकि वह धर्म की धुरी है"। सारपूर्ण शब्दों में इतना ही कहा जा सकता है कि जैन संस्कृति में नारी का स्थान और महत्व अजोड़ और अनुपम है। नारी ने जिनशासन की प्रभावना में जव से योगदान देना प्रारंभ किया उसका इतिवृत शब्दशः लिखना इस लघुकाय लेख में संभव नहीं है तथापि मेरा विनम्र प्रयास भी उस दिशा में कदम भर है।
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Sagar
9 साध्वी डॉ. श्री धर्मशीलाजी का जन्म अहमदनगर में सन् १६३६ में हुआ तथा आपने सन् १६५८ में जैन दीक्षा ग्रहण की। आपने एम.ए., साहित्यरत्न एवं पी.एच.डी. की उपाधियां प्राप्त की हैं एवं जैन दर्शन का अध्ययन किया है। आपके प्रवचन बोधप्रद होते हैं। आपने 'श्रावक-धर्म' पुस्तिका का संपादन किया है। जैन ज्ञान के प्रचार-प्रसार में आप एवं आपकी विदुषी शिष्याएं निरंतर कार्यशील हैं।
-सम्पादक
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जैन संस्कृति में नारी का महत्व
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