Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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जैन संस्कृति का आलोक
न मार्ग में किसी के पुकारने पर बोलते थे। किन्तु मौनवृत्ति अंग थी। श्री भद्रबाहु स्वामी ने नेपाल में जाकर महाप्राण से यना पूर्वक मार्ग को देखते हुए चलते थे। ध्यान की साधना की, ऐसा उल्लेख आवश्यक चूर्णि भागआचारांग सूत्र के अनुसार भगवान् महावीर ने ध्यान ।
२ के पृष्ठ १८७ में मिलता है। इसी प्रकार दुर्बलिका साधना का बाह्य और आभ्यंतर अनेक विधियों का प्रयोग पुष्यमित्र को ध्यान साधना का उल्लेख भी आवश्यक चर्णि किया था। वे सदैव जागरुक होकर अप्रमत्त भाव से ।
में उपलब्ध है। समाधि पूर्वक ध्यान करते थे। भगवान् महावीर के पश्चात् अतः ध्यान आत्म साक्षात्कार की कला है। मनुष्य यह ध्यान-साधना की प्रवृत्ति निरंतर बनी रही। उत्तराध्ययन के लिए जो कुछ भी श्रेष्ठ है, कल्याणकारी है; वह ध्यान सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि मुनि दिन के द्वितीय प्रहर में से ही उपलब्ध हो सकता है। ध्यान-साधना पद्धति कोऽहं
और रात्रि के द्वितीय प्रहर में ध्यान-साधना करें। उस से प्रारंभ होकर सोऽहं के शिखर तक पहुँचती है। अतः समय के साधकों को ध्यान-साधना मुनिजीवन का आवश्यक ध्यान अध्यात्मिकता का परम शिखर है।
आचार्य डॉ. श्री शिवमुनिजी का जन्म सन् १६४२ में पंजाब के मलोट कस्बे के एक सम्पन्न परिवार में हुआ। आपने ३० वर्ष की उम्र में श्रमण दीक्षा ग्रहण की। इसके पूर्व आपने विदेश के अनेक स्थानों की यात्रा करके वहाँ की संस्कृतियों का अध्ययन किया। आपने अंग्रेजी में एम.ए. किया तथा पी.एच.डी. एवं डी.लिट्. की उपाधियां प्राप्त की। आप स्वभाव से सरल, विचारों से प्रगतिशील एवं विशिष्ट ध्यान साधक हैं। आपने दो महत्वपूर्ण ग्रन्थों - "भारतीय धर्मों में मुक्ति का सिद्धांत" एवं "ध्यान : एक दिव्य साधना" की रचना की। १६६६ में आप श्रमण संघ के चतुर्थ आचार्य घोषित हुए। आपने अनेक ध्यान-शिविरों का आयोजन किया।
-सम्पादक
नारी की जैन धर्म और जैनदर्शन ने निंदा नहीं की है। लेकिन विकृत जीवन चाहे वह नारी का हो, चाहे पुरुष का हो, साधु या साध्वी का हो, जहाँ जीवन मार्ग से च्युत हो गया, मार्ग-भ्रष्ट हो गया है उसकी तो भगवान् महावीर ने ही नहीं सभी ने आलोचना की है।
संघ समाज के दो पक्ष है - एक नारी का, एक पुरुष का, एक साधु और दूसरा साध्वी है। यह संघ है, इसमें अकेला साधु या साध्वी हो और श्रावक हो श्राविका न हो तो कैसे बात बन सकती है? वह सर्वांगीण तीर्थ नहीं बन सकता।
- सुमन वचनामृत
आत्मसाक्षात्कार की कला - ध्यान
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