Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai

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Page 572
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि कथन से अति स्पष्ट है कि तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ वन्दनीय है। चतुर्विध तीर्थ में आत्मा की दृष्टि से नारी और पुरुष इन दोनों में तात्त्विक विभेद नहीं है, आध्यात्मिक जगत् में नर और नारी का समान रूप से मूल्यांकन हुआ है। हमारी जैन संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सभी को समान स्थान एवं समान अधिकार प्राप्त है। जिस तरह हमारी मातृभूमि सहिष्णु मानी गई है उतनी ही सहिष्णु नारी है। नारी सेवा रूपा और करूणा रूपा है। सेवा - सुश्रूषा और परिचर्या, दया, ममता आदि के विषय में जब विचार किया जाता है तो हमारी दृष्टि नारी समाज पर जाती है। उसकी मोहक आँखों में करुणारूपी ममता का जल और आँचल में पोषक संजीवनी देखी जा सकती है। कुटुंब, परिवार, देश, राष्ट्र, युद्ध, शांति, क्रान्ति, भ्रान्ति, अंधविश्वास मिथ्या मान्यताओं जैसी स्थितियाँ क्यों न रही हो नारी सदैव लड़ती रही और अपने साहस का परिचय देती रही। पर वह दुःखों को, भारी कार्यों को उठानेवाली 'क्रेन' नहीं है। परंतु वह इनसे लड़नेवाली एवं निरंतर चलती रहनेवाली आरी अवश्य है। मैले आँचल में दुनिया भर के दुख समेट लेना उसकी महानता है। विलखते हुए शिशु को अपनी छाती से लगा लेना उसका धर्म है। वह सभी प्रकार के वातावरणों में घुलमिल जानेवाली मधुर भाषिणी एवं धार्मिक श्रद्धा से पूर्ण है। विश्व के इतिहास के पृष्ठों पर जब हमारी दृष्टि जाती है तब ग्रामीण संस्कृति में पलनेवाली नारी चक्की, चूल्हे के साथ छाछ को विलोती नजर आती है और संध्या के समय वही अंधेरी रात में रोशनी का दीपक प्रज्वलित करती है। हर पल, हर क्षण, नित्य नये विचारों में डूबी हुई रक्षण-पोषण में लगी हुई, अंधविश्वासों से लड़ती हुई नजर आती है। जब वह अपने जीवन के अमूल्य समय को सेवा में व्यतीत कर देती है तब उसे अंधविश्वास एवं मिथ्या मान्यताओं से कोई लेना-देना नहीं होता है। नारी : धर्म क्षेत्र में अग्रणी जैन संस्कृति के मूल सिद्धान्तों के प्रगतिशील दर्शन | १३८ ने नारी को यथोचित सम्मान दिया है। धार्मिक क्षेत्र में भी नर और नारी की साधना में कोई भेद नहीं रखा है। चतुर्विध संघ में नारी को समान स्थान दिया है। साधु साध्वी श्रावक और श्राविका। जैन संस्कृति के श्वेताम्बर परिप्रेक्ष्य में पुरुषों की तरह नारी भी अष्टकर्मों को क्षय करके मोक्ष जा सकती है, जिसका प्रारंभिक ज्वलन्त उदाहरण भगवान् ऋषभदेव की माता मरुदेवी है। भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर ने आध्यात्मिक अधिकारों में कोई भेद नहीं रखा। उन्होंने पुरुषों की भांति नारी को भी दीक्षित बनाया है। परिणामतः उन सभी की श्रमणसम्पदा से श्रमणी सम्पदा अधिक रही है। भगवान महावीर के संघ में श्रमणसम्पदा से श्रमणी सम्पदा अधिक रही है। भगवान् महावीर के संघ में श्रमणों की संख्या चौदह हजार थी तो श्रमणियों की संख्या छत्तीस सहस्र थी। जहाँ श्रावकों की संख्या एक लाख उनसठ हजार थी वहाँ श्राविकाओं की संख्या तीन लाख अठारह हजार थी। भगवान् महावीर की दृष्टि में स्त्री और पुरुष दोनों का स्थान समान था। क्योंकि उन्होंने इस नश्वर शरीर के भीतर विराजमान अनश्वर आत्मतत्त्व को पहचान लिया था। उन्होंने देखा कि चाहे देह स्त्री का हो या पुरुष का, आत्मतत्त्व सभी में विद्यमान है और देह-भिन्नता से आत्मतत्त्व की शक्ति में कोई अन्तर नहीं आता। सभी आत्माओं में में समान बलवीर्य और शक्ति है। इसीलिए भगवान् फरमाते है – “पुरुष के समान ही स्त्री के भी प्रत्येक धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में बराबर अधिकार है। स्त्री जाति को हीन पतित समझना केवल भ्रान्ति हैं। इसीलिए भगवान् ने श्रमणसंघ के समान ही श्रमणियों का संघ बनाया, जिसकी सारणा-वारणा साध्वी प्रमुखा चंदनबाला स्वयं स्वतंत्र रूप से करती थी। मनीषियों ने आध्यात्मिक निर्देशनों की दृष्टि से चंदनबाला को गणधर गौतम के समकक्ष माना। जैन संस्कृति में नारी के माहात्म्य में सर्वोत्कृष्ट पक्ष जैन संस्कृति में नारी का महत्व | n Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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