Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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जैन संस्कृति का आलोक
आत्म-साक्षात्कार की कला : ध्यान
- आचार्य डॉ. श्री शिवमुनि
ध्यान एक दर्शन है। ध्यान शुभ भी है और अशुभ भी। आत्म स्वभाव में रमण करना ही ध्यान है। मन की चंचल वृत्तियों पर समता का अंकुश लगाना ध्यान है। ध्यान करने-करवाने की कला में सिद्धहस्त आचार्य डॉ. शिवमुनि जी म. ध्यान के रहस्यों को उद्घाटित कर रहे हैं, अपने इस आलेख के माध्यम से।
- सम्पादक
ध्यान : आत्मभाव में रमण
एकाग्रता अर्थात् अपने चित्त को किसी एक आलम्बन भारत की भूमि आध्यात्मिक साधना की रंगस्थली में स्थित करके आत्मभाव में रमण करने से चित्त का रही है। इस भारत में समय-समय पर अनेक तीर्थंकरों का निरोध होता है और आत्मिक आनंद की अनुभूति होती एवं प्रबुद्ध महापुरुषों का अवतरण हुआ है। यहाँ अनेकानेक है। अतः चित्त की स्थिरता ही आत्मभाव में रमण करने आत्माएँ दिव्य साधना के बल पर अपनी दिव्यता को प्राप्त का साधन है ; यही साधन ध्यान है। कर चुकी हैं। उन्होंने जन-जन को भगवत्ता प्राप्त करने
मन का स्वरूप क्या है? - जैसे सागर में लहरों का की साधना दी है, जो आज के भौतिक सुखों की दौड़ में
स्थान है वही स्थान चेतना रूपी समुद्र में अर्थात् अंतःकरण दौड़ने वाले जनमानस को वर्तमान क्षण में शाश्वत सुख
में उठनेवाले संकल्प-विकल्प जनित वैचारिक लहरों का शान्ति की अनुभूति कराती है, वह साधना है -
है। इन संकल्प-विकल्पों का कोई निज अस्तित्व नहीं है। ध्यान-साधना।
ज्यों ही समुद्र शान्त होने पर लहरें शान्त हो जाती है, उसी ध्यान के सम्बन्ध में आचार्यों का मत है कि उत्तम
प्रकार चेतना में शुद्ध भावों का आविर्भाव होने पर अंतःकरण संहनन वाली आत्मा का किसी एक अवस्था में अन्तर्मुहूर्त
के संकल्प-विकल्प शान्त हो जाते हैं और निर्विकल्पक के लिए चिंता का निरोध होता है वही ध्यान है।
अवस्था प्राप्त होती है। निर्विकल्पक अवस्था को प्राप्त "उत्तम संहननस्यैकाग्र चिन्तानिरोधो ध्यानम् ।"
करने के लिये आवश्यक है - ज्ञाता-द्रष्टा भाव की साधना। (तत्त्वार्थ सूत्र १-२१) । अंतःकरण में उठनेवाले संकल्प-विकल्पों को द्रष्टाभाव से अर्थात्, साधक का अपने चित्त का निरोध करते हुए देखने का अभ्यास साधना के द्वारा करें। तभी उसे अपने आत्मभाव में बिना किसी व्यवधान के (अन्तर्मुहूर्त) अनुभूति होती है - स्थित रहना ही ध्यान है।
एगो मे सासओ अप्पा नाण-दंसण संजुओ। भगवान् महावीर से गौतम स्वामी ने पूछा -
सेसा से बाहिरा भावा सब्बे संजोग लक्खणा।। “एगग्गमण सन्निवेसणाएणं भन्ते जीवे किं जणयइ?" अर्थात् भन्ते ! एकाग्र मन सन्निवेशना से जीव को क्या प्राप्त होता
अर्थात् एक मेरी आत्मा शाश्वत है जो ज्ञान-दर्शन से है? इसका उत्तर देते हुए भगवान ने कहा कि एकाग्रमन संयुक्त है शेष सभी बाहर के भाव हैं। अर्थात् संयोग सन्निवेशना से जीव चित्त का निरोध करता है।
मात्र है।
आत्म-साक्षात्कार की कला : ध्यान
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