Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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देता है । अन्तरात्मा के चार प्रमुख दोषों ( क्रोध, मान, माया, लोभ) में क्रोध ही प्रथम और निकृष्ट है - क्रोध प्रेम का नाश कर - घृणा, द्वेष और वैर का कारण है, मान विनय का, माया मैत्री का और लोभ सर्वनाशक है (दशवैकालिक - ३७ ) । आचाराङ्ग में बताया है - वीरेहि एवं अभिभूयं दिट्ठ संजेतेहि सया जतेहि सया अप्प - मत्तेहिं (४ - ६८) । वीर साधना के विघ्नों को निरस्त करते हैं - संयम से इन्द्रिय और मन का निग्रह, यमी होकर क्रोध का दमन और अप्रमत्त होकर सदा जागरूक रहते हैं । कषाय विरति के लिए सूत्र हैं “ से वंता कोहं च, माणं च, मायं च लोभं च' साधक क्रोध, मान, माया लोभ का परित्याग करे । पुनः क्रोध, मान, माया लोभ का प्रेरक वर्णन है (शीतोष्णीय ३ ) । इसी से 'दुक्खं लोभस्स जाणित्ता' । संक्षेप में कषाय त्याग के लिए साधना, तप और एकाग्रता आवश्यक है "आंतरिक ज्ञान - प्रज्ञा से ही अप्रमादी और “कोह दंसी" बनना संभव है । आचार्य अमितगति ने -
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स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्”
आस्रव का हेतु कर्म है - पुण्य और पाप आस्रव के लिए कहा गया है- “पुण्णस्सासव भूदा अणुकंपा सुद्धो उवजोओ” - अनुकंपा और सद् प्रकृति से शुद्धोपयोग और पुण्य कर्मों का आस्रव होता है और चारों कषायों का क्षय । सुभाषित है “ प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूराद् स्पर्शनं वरम्” कीचड़ लगा कर धोने की अपेक्षा, न लगाना ही उत्तम और अपेक्षित है। आचार्य हस्ति ने (अध्यात्म आलोक पृ. १८६ में) पूर्वाचार्यों के कथन का उल्लेख किया है
मंज्जं विसय कसाया, निद्दा विकहा य पंचमी भणिया एए पंच पमाया जीवा पाडंति संसारे"
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" प्रकर्षेण मादयति जीवं येन स प्रमादः "
कषाय : क्रोध तत्त्व
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जैन संस्कृति का आलोक
प्रमाद में मनुष्य विवेकहीन हो जाता है - करणीय अकरणीय का ध्यान नहीं रहता और आत्मा के स्वरूप की हिंसा करता है | वेदनीय कर्म के उदय से होने वाली क्रोधिता रूप कलुषता कषाय है- वह हिंसा करती है । मिथ्यात्व सबसे बड़ा कषाय है ।
जिन जीवों के कषाय नष्ट हो चुके हैं, जो वीतरागी है उनकी सभी क्रियाएं ऐर्यापिथिकी हैं और जो क्रियाएं सांसारिक बन्धन को और कसती हैं, वे साम्प्ररायिकास्रव हैं । तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार “सकषाया- कषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः (६ - ५) । कषाय चारित्रिक मोहनीय कर्मबंध के हेतु हैं - वे आत्मा को उद्वेलित करते हैं । चारित्र मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- कषाय और नोकषाय । इनके भी अनेक भेद - प्रभेद हैं । उत्तराध्ययन के अनुसार कषाय के प्रत्याख्यान से वीतराग भाव उत्पन्न होता है। और जीव सुख-दुःख में सम हो जाता है ( २६-३७) कषाय के लिए कहा गया है -
होदि कसाउम्मत उम्मतो त ण पित्त उम्मत्तो । ण कुणदि पित्तुम्मत्तो पावं इदरो जघुम्मतो । ( भगवती आराधना १३३१ )
कषाय से उन्मत्त व्यक्ति पित्त से उन्मत्त व्यक्ति से भी अधिक तीव्र होता है क्रोध पित्त निज छाती जारा तुलसीदास पुनः कहते हैं:
काम क्रोध मद लोभ न जाके । तात निरन्तर वंश में ताके ।
जिस प्रकार नाव के छिद्र को रोक देने से नाव डूब नहीं सकती उसी प्रकार कषायों के अवरूद्ध होने से सभी आश्रव अवरुद्ध हो जाते हैं । कषाय पुनर्जन्म वृक्ष की जड़ों को सींचते हैं -
" चत्तारि ए ए कसिणा कसाया
सिचंति मूलाई पुण भवस्स” (द -८-३६)
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