Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
क्रोध कषाय में सर्वप्रथम है । सूत्रकृतांग (१ - ६ -२६) में क्रोध को कषायों में प्रमुख कहकर अन्तरात्मा का महान् दोष गिना है - इसके परित्याग से महर्षि न पाप करते हैं और न कराते हैं । स्थानाङ्ग (४ - २) कहता है - क्रोध आत्मा को नरक में ले जाता है । स्वयं पर भी क्रोध न करने का आदेश वीर प्रभु ने दिया है ( उत्तराध्ययन २४ - ६७ ) । क्रोध से प्रेम, दया व करुणा नष्ट होते हैं । इसी से वज्जालग के मत में “कोह समो वेरियो नत्थि " क्रोध के समान कोई शत्रु नहीं है । क्रोध में व्यक्ति मातापिता - गुरु का भी बध कर देता है - क्रुद्धः पापं न कुर्यात्कः क्रुद्धो हन्यात् गुरूनपि” “सान्तात्मसे पृथग्भूतः क्षमा रहित मात्र क्रोध है । “क्रोध” “सान्तात्मतः पृथग्भूतः एका अक्षमा रूपो भावः क्रोधः" । अन्यत्र “प्रतिकूले सति तैक्ष्ण्यस्य प्रबोधः" । एक अन्य परिभाषा के अनुसार “स्वपरोपघात निरनुग्रहाहितकार्य परिणामो अमर्षः क्रोधः" अपने या पर के उपघात या अनुपकार आदि करने का क्रूर परिणाम क्रोध है । 'द्रव्य संग्रह टीका' में उसे “अभ्यन्तरे परगोपशम मूर्ति केवलज्ञाना द्वयनत गुण स्वभाव परमात्म स्वरूप क्षोभ कारकाः। बहिर्विषये परेणां संबन्धित्वेन क्रूरत्वाद्या वेश मूर्ति केवलज्ञानादि” अनन्त गुण-स्वभाव परमात्म रूप में क्षोभ उत्पन्न करने वाले तथा बाह्य विषयों अन्य पदार्थों के संबंध से क्रूरता आवेशरूप क्रोध है । 'साहित्य दर्पण' में विश्वनाथ कविराज ने इसे रौद्ररस का स्थायी भाव मान कर कहा है -
अनुभावस्तथाक्षेप क्रूर संदर्शनादयः उग्रतावेग- रोमाञ्चस्वेद-वेपथवो मदः । मोहामर्षादयस्तत्र भावास्युर्व्यभिचारिणः ।। 'भाव प्रकाश' में क्रोध का स्वरूप है - तेजसो जनकः क्रोधः समिधः कथुमतेसुधेः क्रोधः कोपश्च रोषश्चेत्येष भेदस्त्रिधा मतः कृत क्रौर्यं तेन सर्वत्र धचयतीत्यस्त निर्बहः क्रोध्यते क्रोधयत्येवं क्रोध इत्यभिधीयते ।
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प्रसिद्ध आलोचक रामचन्द्र शुक्ल ने इसे शान्ति भंग करने वाला मनोविकार गिनते हुए वैर को क्रोध का अचार या मुरब्बा गिना है। इस प्रकार क्रोध की परिपक्वावस्था रौद्र, क्रूरता, वैर का हेतु है । क्रोध के पर्याय हैं - कोप, अमर्ष, रोष, प्रतिघ, रूट, कुत, भीम, रूपा, हेल, हर हृणि, तपुषी, मृत्यु, चूर्णि, एह आदि । क्रोध एक वत्सर भी है, जिसके आने पर सकल जगत् आकुल हो जाता है एवम् प्राणियों में क्रोध भाव की बहुलता रहती है । यह रजोगुणात्मक और तमोगुणात्मक है । हलायुध कोश में इसके पर्याय कोप, अमर्ष, रोष, प्रतिघ, रुद्र, कृत, कृद दिए हैं। प्रतिकूलेसति तैक्ष्ण्यस्य प्रबोधः । अपने और अपघात अथवा अनुपकार आदि करने का क्रूर परिणाम क्रोध है । वह पर्वत रेखा, पृथ्वी रेखा, धूलि रेखा और जल रेखा के सदृश चार प्रकार का होता है (राजवार्तिक) पौराणिक मान्यता के अनुसार इसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के भूसे हुई है । क्रोध का अनुभाव समस्त शरीर में कम्पन, रक्त कमल के सदृश दोनों नेत्रों का आरक्त होना, भ्रमंग से भी भयंकर आकृति ।
क्रोधेनेत घृत कुन्तल भटः सर्वाङ्ग जोवे पशुः । किञ्चित् कोकनदस्य सदृशे नेत्रे स्वयं रज्यतः । । वत्ते कान्तिमिदे न वक्त्रमन्यो भंगड़ेन भिन्नं भृवोः । चन्द्रोस्यद्म्टलानछनस्य कमलस्योम्द्रान्त भृंगस्य च ।। ( उत्तरराम चरित (५-३६)
जैन मान्यता के अनुसार भी क्रोध में हृदय दाह, अंग कम्प, नेत्र रक्तता और इन्द्रियों की अपटुता उसके प्रभाव हैं। भौंह चढ़ाने के कारण जिसके ललाट में तीन बली पड़ती है, शरीर में संताप होता है, कांपने लगता है वह क्रोध सब अनर्थ की जड़ है । आधुनिक मनोविज्ञान में जेम्स लेज का सिद्धान्त भी क्रोध के इन अनुभावों का समर्थन करता है ।
भारतीय चिन्तन धारा में क्रोध पर विशेष विचार
कषाय : क्रोध तत्त्व
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