Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
क्रोधः असि समुहातीक्ष्ण तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत् । ।
क्रोध के समय शरीर की आक्रामक ग्रंथियां अधिक सक्रिय होकर शरीर और भाव तंत्र को विकृत करती है । ब्रेन हेमरेज का भी एक कारण क्रोध है । जैन आगमों में क्रोध को अल्पायु का एक कारण गिना है । भगवान् महावीर का निर्देश है - उवसमेण हणे कोहं" उपशम क्रोध का हनन करता है। जीवन में क्षमता, समता और स्थिरता, ऋजुता आवश्यक है । क्रोध एक भाव तरंग है जो मस्तिष्क का भावावेश (इमोशनल एरिया) से उत्पन्न होकर, एड्रीनल ग्लांड (अधिवृक्क ग्रंथि) को उत्तेजित करता है, जिससे मनुष्य अपना मानसिक व शारीरिक संतुलन खो बैठता है । और विष तरंगों का प्रभाव बढ़ता है। क्षमता, समता, स्थिरता और ऋजुता ही संतुलन देते हैं । महर्षि व्यास के अनुसार क्रोध न करने वाला व्यक्ति सौ वर्ष तक यज्ञ करने वाले से भी श्रेष्ठ है ।
यो यजुद परिश्रान्तो मासि मासि शतं सभा । क्रुध्येच्च सर्वस्य.... तयोरक्रोधनोऽधिकः । वन पर्व (२०६-३२) में व्यास का कथन हैबलाका हि त्वया दग्धा शेषात्तदधिगतं मया । क्रोधः शत्रुः शरीरस्थो मनुष्याणां द्विजोत्तम ।।
तुमने क्रोध कर के एक बगुली को जला दिया । यह मुझे ज्ञात हो गया। क्रोध नामक शत्रु मनुष्य के शरीर में ही रहता है । अन्यत्र नहीं, जो उसे जीत लेता है, वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। लोक मर्यादा, व्यक्ति हित, दोनों दृष्टियों
क्रोध गर्हणीय है। महाभारत में अनेक स्थलों पर महर्षि व्यास ने क्रोध को महाशत्रु गिना है - यथा आदि पर्व - ७६-६, ४२-३ वन पर्व २०७३२ ) । अनेक पुराणों में क्रोध को अभिशाप गिना है । पद्म पुराण में नन्दा गाय अपनी पुत्री को कभी प्रमाद न करने का उपदेश देती है । लोभ से किसी घास को मत चरना। लोभ व प्रमाद सद्गुणों का नाश कर देते हैं। गरुड़ पुराण में नरकों का
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वर्णन करते समय कहा गया है कि व्यक्ति को पाप का फल भोगना पड़ता है। यह पुराण मनुष्य को असत् कर्म से हटा कर सत् कर्म के लिए प्रवृत्त करता है - अशुभ कर्म से पाप फल प्राप्त होते हैं । वामन पुराण (२८-७) में कहा है कि क्रोधी लोक में यज्ञ, दान, तप, हवन आदि सभी क्रियाओं का फल प्राप्त नहीं करता उसके शुभ कर्म निष्फल होते हैं। अक्रोधी शांत एवं उन्नति चाहता है - उसकी वाणी में माधुर्य होता है - दुर्वचन क्रोध का परिणाम है जिसका घाव कभी नहीं भरता । सत्य, अहिंसा और प्रेम मानवीय गुण है । विष्णु पुराण (१-१-१७-२०) में वसिष्ठ का कथन है
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“ मूढानामेव भवति क्रोधो ज्ञानवतां कुतः”
संचितस्यापि महता वत्स क्लेशेन मानवैः । यशसस्तपसश्चैव क्रोधो नाशकरः परः । स्वर्गापवर्ग व्यासेधकारणं परमर्षयः वर्जयन्ति सदा क्रोधं तात मा तद्वशो भव ।
पुनः साधुओं का बल केवल क्षमा है । यही पुराण आगे कहता है कि वैर भाव रहते हुए भी तुमने क्षमा का आश्रय लिया है और क्रुद्ध होने पर भी सन्तान का वध नहीं किया। तुम वर के अधिकारी हो ( वही - २५) । इसी पुराण में प्रहलाद ने अपरिमेय क्षमा का उदाहरण देकर मृत ब्राह्मणों को पुनः जीवित करा दिया । मत्स्य पुराण में तप, दान, शम, आर्जव, सरलता, दया को सर्वोत्तम गुण गिने हैं। पुराणों के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों में भी क्रोध को हेय बताया है । नीति शास्त्रों में भी क्रोध को अग्नि कहा है । चाणक्य नीति कहती है कि काम के समान कोई रोग नहीं, मोह के समान शत्रु और क्रोध के समान कोई आग नहीं । क्रोधी नरक में जाता है । क्रोध यमराज की मूर्ति है । विद्यार्थी को कामवासना के साथ क्रोध का त्यागने का भी चाणक्य ने आदेश दिया है । शुक्रनीति में भी छः दोषों में से क्रोध को एक दोष गिना है - इसी में मनुष्य का
कषाय : क्रोध तत्त्व
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