Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन पालि ३. शेष शौरसेनीवत् ।। ८/४/४४६।। ग्रन्थों की एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्य भवति ।
अधिक दूरी नहीं है। जिस समय अर्धमागधी और पालि अपभ्रंशभाषायां प्रायः शौरसेनीभाषातुल्य कार्य जायते; में ग्रन्थ रचना हो रही थी, उस समय तक शौरसेनी एक शौरसेनी-भाषायाः ये नियमाः सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशबोली थी, न कि एक साहित्यिक भाषा। साहित्यिक भाषा भाषायामपि जायते - हेमचन्द्र कृत 'प्राकृत व्याकरण' के रूप में उसका जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद
अतः इस प्रसंग में यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम ही हुआ है। संस्कृत के पश्चात् सर्वप्रथम साहित्यिक
इन सूत्रों में 'प्रकृति' शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, भाषा के रूप में यदि कोई भाषाएं विकसित हुई है तो वे
इसे समझें। यदि हम यहाँ प्रकृति का अर्थ उद्भव का अर्धमागधी और पालि ही हैं, न कि शौरसेनी। शौरसेनी
कारण मानते हैं, तो निश्चित ही इन सूत्रों से यह फलित का कोई भी ग्रन्थ या नाटकों के अंश ईसा की तीसरी -
होता है कि मागधी या पैशाची का उद्भव शौरसेनी से चौथी शती से पूर्व का नहीं हैं-जबकि पालि त्रिपिटक और
हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन भाषा मानने अर्धमागधी आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ ई.पू. तीसरी
वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उद्भूत मानने चौथी शती में निर्मित हो चुके थे।
वाले ये विद्वान् वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों 'प्रकृतिः शौरसेनी' का सम्यक् अर्थः
नहीं करते, जिसमें शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत बताई गयी
है, यथा - "शौरसेनी - १२/१ टीका - शूरसेनानां भाषा जो विद्वान् मागधी या अर्धमागधी को शौरसेनी से
शौरसेनी साच लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीकियते इति वेदितव्यम् । परवर्ती और उसीसे विकसित मानते हैं, वे अपने कथन
अधिकारसूत्रमेतदा परिच्छेद समाप्तेः १२/१ प्रकृतिः संस्कृतम्का आधार वररुचि (लगभग ७वीं शती) के प्राकृत प्रकाश
१२/२ टीका - शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम् ।। और हेमचन्द्र (लगभग १२वीं शताब्दी) के प्राकृत व्याकरण
प्राकृत प्रकाश/१२/२/" अतः उक्त सूत्र के आधार पर हमें के निम्नलिखित सूत्रों को बताते हैं -
यह भी स्वीकार करना होगा कि शौरसेनी प्राकृत संस्कृत अ. १. प्रकृतिः शौरसेनी।। १०/२।।
से उत्पन्न हुई। इस प्रकार प्रकृति का अर्थ उद्गम स्थल ___अस्याः पैशाच्याः प्रकृतिः शौरसेनी। स्थितायां शौरसेन्यां
करने पर उसी प्राकृत प्रकाश के आधार पर यह भी मानना ___ पैशाची - लक्षणं प्रवर्ततितव्यम् ।
होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी और उसी से शौरसेनी २. प्रकृतिः शौरसेनी ।।११/२।।
उत्पन्न हुई। क्या शौरसेनी के पक्षधर इस सत्य को स्वीकार अस्याः मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम् । करने को तैयार हैं? भाई सुदीप जी, जो शौरसेनी के - वररुचि कृत 'प्राकृत प्रकाश'
पक्षधर हैं और 'प्रकृतिः शौरसेनी' के आधार पर मागधी ब. १. शेष शौरसेनीवत् ।।८/४/३०२।।
को शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी 'प्रकृतिः मागध्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम्।। संस्कृतम् - प्राकृत प्रकाश १२/२' के आधार पर यह २. शेष शौरसेनीवत् ।। ८/४/३२३ ।।
मानने को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न पैशाच्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् । हुई ऐसा हैं वे स्वयं लिखते हैं - “आज जितने भी प्राकृत भवति।
व्याकरण शास्त्र उपलब्ध हैं। वे सभी संस्कृत भाषा में हैं
____ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? |
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