Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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जैन संस्कृति का आलोक
यही सूचित करता है कि सेवा और साधना अभिन्न हैं। मात्र यही नहीं जैन परम्परा में तीर्थंकर पद, जो साधना का सर्वोच्च साध्य है, की प्राप्ति के लिए जिन १६ या २० उपायों की चर्चा की गई है, उनमें सेवा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। निष्काम सेवा ही साधना है !
गीता में भी लोकमंगल को भूतयज्ञ (प्राणियों की सेवा) का नाम देकर यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।" इस प्रकार जो यज्ञ पहले वैयक्तिक हितों की पूर्ति के लिए किये जाते थे, उन्हें गीता ने मानव सेवा से जोड़कर एक महत्वपूर्ण क्रान्ति की थी। धर्म का एक अर्थ दायित्व या कर्तव्य का परिपालन भी है। कर्तव्यों या दायित्वों को दो भागो में विभाजित किया जाता है - एक वे जो स्वयं के प्रति होते हैं और दूसरे वे जो दूसरे के प्रति होते हैं। यह ठीक है कि व्यक्ति को अपने जीवन रक्षण और अस्तित्व के लिए भी कुछ करना होता है, किन्तु इसके साथ-साथ ही परिवार, समाज, राष्ट्र या मानवता के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य होते हैं। व्यक्ति के स्वयं के प्रति जो दायित्व है, वे ही दूसरे की दृष्टि से उसके अधिकार कहे जाते हैं
और दूसरों के प्रति उसके जो दायित्व हैं, वे उसके कर्त्तव्य कहे जाते हैं। वैसे तो अधिकार और कर्त्तव्य परस्पर सापेक्ष ही हैं। जो मेरा अधिकार है, वही दूसरों के लिए मेरे प्रति कर्त्तव्य हैं। दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का परिपालन ही सेवा है। जब यह सेवा बिना प्रतिफल की आकांक्षा के की जाती है तो यही साधना बन जाती है। इस प्रकार सेवा और साधना अलग-अलग तथ्य नहीं रह जाते हैं। सेवा साधना है और साधना धर्म है। अतः सेवा, साधना और धर्म एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।
सामान्यतयः साधना का लक्ष्य मुक्ति माना जाता है और मुक्ति वैयक्तिक होती है। अतः कुछ विचारक सेवा और साधना में किसी प्रकार के सहसम्बन्ध को स्वीकार
नहीं करते। उनके अनुसार वैयक्तिक मुक्ति के लिए किए गए प्रयत्न ही साधना हैं और ऐसी साधना का सेवा से कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु, भारतीय चिन्तकों ने इस प्रकार की वैयक्तिक मुक्ति को उचित नहीं माना है। जहाँ तक वैयक्तिकता या मैं है, अहंकार है और जब तक अहंकार है, मुक्ति सम्भव नहीं है। जब तक मैं या मेरा है, राग है और राग मुक्ति में बाधक है। पर-पीड़ा-स्व-पीड़ा
वस्तुतः भारतीय दर्शनों में साधना का परिपाक सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि के विकास में माना गया है। गीता में कहा गया है कि जो सभी प्राणियों को आत्मा के रूप में देखता है, वही सच्चे अर्थ में द्रष्टा है और वही साधक है। जब व्यक्ति के जीवन में इस आत्मवत् दृष्टि का विकास होता है, तो दूसरों की पीड़ा भी उसे अपनी पीड़ा लगने लगती है। इस पर दुःख कातरता को साधना की उच्चतम स्थिति माना गया है। रामकृष्ण परमहंस जैसे उच्चकोटि के साधकों के लिए यह कहा जाता है कि उन्हें दूसरों की पीड़ा अपनी पीड़ा लगती थी। जो साधक साधना की इस उच्चतम स्थिति में पहुँच जाता है और दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने लगता है, उसके लिए वैयक्तिक मुक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में प्रह्लाद ने स्पष्ट रूप से कहा था
प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः। मौनं चरन्ति विजने न तु परार्थनिष्ठाः ।।
नेतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्षुरेकः ।। " - प्रायः कुछ मुनिगण अपनी मुक्ति के लिए वन में अपनी चर्या करते हैं और मौन धारण करते हैं, लेकिन उनमें परार्थ निष्ठा नहीं है। मैं तो सब दुःखीजनों को छोड़कर अकेला मुक्त नहीं होना चाहता।"
१. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग - २ पृ.१४६
साधना और सेवा का सहसम्बन्ध
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