Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
सुख-दुःखादि देने का स्वभाव पड़ना प्रकृतिबंध है। २. कर्म बंधने पर जितने समय तक आत्मा के साथ बद्ध रहेंगे, उस समय की मर्यादा का नाम स्थितिबंध है। ३. कर्म तीव्र या मन्द जैसा फल दे उस फलदान की शक्ति का पड़ना अनुभाग बन्ध है। ४. कर्म परमाणुओं की संख्या के परिणाम को प्रदेश-बंध कहते हैं।
इनमें प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध योग से होते हैं तथा स्थितिबंध और अनुभाग बंध कषाय से होते हैं। योग जितना तीव्र या मन्द होता है, तदनुसार ही पौद्गलिक कर्मस्कन्ध आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं। जैसे हवा जितनी तेज, मन्द चलती है, तदनसार ही धल उड़ती है। इसी तरह क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे तीव्र या मन्द होते है, तदनुसार ही कर्म पुद्गलों में तीव्र या मन्द स्थिति और अनुभाग पड़ता है। इस तरह योग और कषाय बंध के कारण है। इनमें भी कषाय ही संसार की जड़ है। क्योंकि कषायों के बिना कर्म परमाण आत्मा में टिकते नहीं है। जबकि आत्मा में चुम्बक की तरह एक आकर्षण शक्ति होती है, जो संसार में सर्वत्र पाये जाने वाले सूक्ष्म कार्मण स्कन्धों को अपनी ओर खींचा करती है। आत्मा की इस आकर्षण शक्ति को ही “योग” कहा जाता है। इस तरह कर्म पुद्गलों का खिंच आकर आत्मा से सम्बन्ध करना और उनमें स्वभाव का पड़ना, यह कर्मयोग (मन, वचन, कामरूप क्रिया) से होता है। यदि वे कर्म पुद्गल किसी के ज्ञान में बाधा डालनेवाली क्रिया से खिंचे हैं तो उनमें ज्ञान गुण को आवृत (ढ़कने) करने का स्वभाव पड़ेगा। और यदि रागादि कषायों से खिंचे है तो चारित्र के नष्ट करने का स्वभाव पड़ेगा।
जिस तरह खाया हुआ अन्न अपने आप रक्त, मांस, मज्जा, हड्डी आदि के रूप में बदल जाता है। उसी तरह से ये आत्मा के साथ संबंधित “कर्म" भी तरह-तरह के भेदों में बदल जाते हैं, जिन्हें हम ज्ञानावरण, दर्शनावरण,
वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय - इन आठ भेदों या नामों से पुकारते हैं। और ये कर्म ही विभिन्न रूप में आत्मा के साथ संबंधित होकर मनुष्यों में
और समस्त जीवधारियों में हीनाधिकता पैदा किया करते हैं। ये आठ कर्म ही आत्मा के निर्मल स्वरूप को किसी न किसी प्रकार धूमिल बनाते रहते हैं। इसीलिए इन आठ कर्मों का अपने-अपने स्वभाव के अनुसार नामकरण भी हैं। इनमें आत्मा के गुणों का घात करने के कारण ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय -- ये चारों घातिया कर्म कहलाते हैं क्योंकि आत्म विकास में ये विशेष बाधक होते हैं। शेष चार कर्म-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चारों अघातिया कर्म कहलाते हैं। इनमें चार घातिया कर्म के नाश से सर्वज्ञता से समलंकृत आत्मा निज स्वरूप में लीन रहती हुई अरहंत पद प्राप्त करती है, जब कि घातिया, अघातिया समस्त कर्मों के पूरी तरह क्षय हो जाने पर पूर्ण विशुद्धि रूप “सिद्ध" स्वरूप की प्राप्ति होती है। ___ पूर्वोक्त जैन कर्म सिद्धान्त के विशेष सन्दर्भ में “नामकर्म" को इसलिए इस निबंध में विशेष सन्दर्भित किया जा रहा है चूँकि उपर्युक्त आठ कर्मों में इस नामकर्म का अनेक दृष्टियों से विशेष महत्व है। आज संसार में अनन्तानन्त प्रकार के जीवों में जो विविधता, समानता, चित्र-विचित्रता, आकार-प्रकार, उनका अपना-अपना स्वभाव, स्पर्श, गन्ध, यश-अपयश आदि दिखलाई देता है, वह सब इसी नाम कर्मोदय की महिमा है न कि किसी ईश्वर विशेष की। परकर्तृत्व के भ्रम को तोड़ने में यही कर्म विशेष कार्य करता है। चौरासी लाख योनियों में जीव की अनन्त आकृतियाँ हैं। इन सबके निर्माण का कार्य यह नामकर्म ही करता है। इसी से शरीर और उसके अंगोपांग आदि की रचना होती है। जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार इस नामकर्म के उदय से हमारा शरीर और उसके अंगोपांगों का निर्माण
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जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में |
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